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अक्तूबर 15, 2013

++काम प्यारा होता है चाम नहीं ++





काम प्यारा होता है, चाम नहीं
हर वक्त माँ चिल्लाती थी
जब डांट लगाती
यही कुछ बड़बड़ाती थी!
बड़े लाड-प्यार से पाला था
चार लड़कों के साथ हमें भी दुलारा था
पर जब हम होने लगे बड़े
रसोई के आस-पास भी नही होते खड़े
तब गुस्से में आ कभी -कभी
खूब झाड़ पिलाती थी
काम प्यारा होता है
चाम नहीं होता प्यारा|

ससुराल में शक्ल नहीं देखेंगे
काम ही करवा कर दम लेंगे|

थोड़ा तो कुछ काम सीख लो
लड़कों सी पल रही हो
नाज नखरे सब जो कर रही हो
शादी कर जब दूजे घर जाओगी
नहीं यह सब कर पाओगी!
शक्ल देख कोई नहीं जियेगा
अपनी भाभी की तरह
तुम्हें भी वहाँ पर
यहीं सब कुछ करना पड़ेगा!
सुन्दरता लेकर नहीं चाटना है
अभी काम तुम्हें बहुत सीखना है
सब काम सीख लोगी तो हाथों-हाथ रहोगी
वरना सास हमेशा कोसती ही रहेगी!
काम प्यारा होता है, होता नहीं है चाम प्यारा
अच्छा होगा सीख लो तुम, घर का काम सारा |
++++सविता मिश्रा ++++

अक्तूबर 13, 2013

क्यों नारी ही दुःख पाती है-

राम बने कोई, चाहे बने रावण
हैं दोनों मेरी दृष्टि में महान
लेकिन एक नादाँ सा है मेरा सवाल
क्यों हर हाल में
नारी ही दुःख पाती है ?
रावण की मृत्यु हो
इस कारण
सीता ही क्यों वन को जाती है ?

लक्ष्मण की पत्नी क्या
नारी नहीं कहलाती है !
चौदह साल जो बिना विरोध किये
पति-विछोह को सह जाती है
बिन पानी मछली की तरह
हर दुःख को वह पी जाती है
सास की सेवा में रहकर वह
अपना जीवन व्यतीत कर जाती है !

मेघनाथ को मिला वरदान जहाँ
उर्मिला के लिए श्राप बन जाता है
दशरथ का अनुचित कर्म भी वहाँ
कैकेयी को ही अपयश दिलाता है
यूँ हर हाल में क्यों..नारी ही दुःख पाती है |
रावण की मृत्यु हो !
इस कारण सीता ही क्यों वन को जाती है ?

मंदोदरी का था क्या अपराध ?
जिसके पति-परमेश्वर के
था अमृत नाभि के पास
मार सकता था उसे कोई खासमखास
करता था वह भीषण अट्टहास
देवता भी जिसकी मुट्टी में थे
जिसका पति हो इतना बलसाली
उसकी भी मिट गयी सिंदूर की लाली
भेदिया विभीषण ने कहानी सारी कह डाली
सारी की सारी लंका उसने जला डाली
विभीषण ने तो गद्दारी करके गद्दी पा पाली
लेकिन यहाँ भी दुखी भई एक निरपराध नारी |

सार यह है कि हर हाल में
नारी ही क्यों मारी जाती है
नियति मंथरा से ही क्यों चाल चलवाती है
कैकेयी ही क्यों कोपभवन को जाती है
एक औरत ही क्यों होनी के वास्ते
अपने हाथों अपनी मांग उजाड़ती है
सुर्पनखा की ही क्यों नाक काटी जाती है
कैकेयी ही क्यों माता से कुमाता बन जाती है
द्रोपदी ही क्यों अपना चीर हरण करवाती है
दुर्योधन के अहंकार को वह क्यों ठेस पहुंचाती है
नियति क्यों हर बार नारी को ही मुहरा बनाती है
निष्कपट-निष्कलंक नारी से ही चाल चलवाती है ?

हर हाल, हर युग में नारी ही क्यों मारी जाती है
कुपरिस्थितियों के भेंट नारी ही क्यों चढ़ जाती है ?
सवाल हैं बहुत तंज से भरे, जवाब हमें अब चाहिए
नारी विरोधी परिस्थितियों को अब सुधारना चाहिए
नारी को ही युगों-युगों से क्यों-कर दुःख दिया जाए ?
सम्मान देकर क्यों न अब इसका प्रायश्चित किया जाए !
सवाल पेचीदा अब यह निरुत्तर नहीं छोड़िए
नारी के सम्मान में अब एकजुट हो लीजिए |
क्यों हर हाल में नारी ही दुःख पाती है ?
रावण की मृत्यु हो इस कारण
सीता ही क्यों वन को जाती है ?
--००---
सविता  मिश्रा  'अक्षजा'

~घर उनके जाना छोड़ दिया~



जो खटखट करने पर भी पट नहीं खोलतें

हमने उनके घर जाना छोड़ दिया
बात करनी तो दूर, नजर उठा भी नहीं देखतें
हमने अब से घर
उनके जाना छोड़ दिया |

स्वाभिमान हमारा जहाँ चोटिल होता
दिल भी बहुत ही ज्यादा दुखता हैं
मन का मिलना नहीं होता जहाँ 

ऐसे घर को जाना  कब का हमने छोड़ दिया|
जो खटखट......
जिसको देखो मार जाता है
ताने
तेरा
अपना कोई कैसे नहीं  होता हैं
क्या करें ! कैसे दिल को समझाए
फिलहाल दिल को बरगलाना
हमने सीख लिया हैं|जो खटखट......
अब दिल पर जब कोई दस्तक भी देता है
दिल कपाट अपना भी
अब नहीं खुलता है
यह भी पराया होने से अब तो डरता है
दिल में अब सब को जगह देना
हमने छोड़ दिया हैं |जो खटखट......
कभी सभी दिल में रहतें थे
हमारेहम अपने पराएँ का भेद ना करतें थे
नन्हें-मुन्हे, बूढ़े-जवान सब को
खूब
देंते थे हम मान सम्मानपर अब हमने भी दिखावा करना सीख लिया|जो खटखट......
अब हमने भी मन को मारना सीख लिया हैं|

जिस ने दिल दुखाया उनके घर जाना छोड़ दिया हैं|| सविता मिश्रा

अक्तूबर 10, 2013

##जिद ##

जिद थी अपनी कि जिद छोड़ देगे,
जिद्दी मन कों अपने मोड़ देगे|
पर यह हो ना सका कभी ,
जिद से ही "जिद" कर बैठी|
खुद कों बदलते-बदलते,

अपना ही वजूद खो बैठी |
अब जिद है कि "जिद"को,
अपने अंदर कैद कर लू |
जिद से ही "जिद"कों भूल जाऊ,
पर "जिद" है जिद्दी बहुत ही कैसे भुलाऊ |

||सविता मिश्रा ||
१५ /२/२०१२

अक्तूबर 08, 2013

.....आकाश तुम धरती बन जाओ.....


हे आकाश कुछ दिन तुम धरती बन जाओ
देखो कितना कुछ धरती सहती है
तुम दूर बैठ हँसते हो
नजदीक आ कहर ढाते हो
साथ मिलते हो जिस छोर
तो अंत होता हैं धरती का
हे आकाश कुछ दिन ही सही
तुम धरती बन जाओ....

धरती आकाश बन जाएगी
सबको अपने में समेट लेगी
दूरियाँ नजदिकिया बन जाएगी
धरती में सहने की आपर क्षमता हैं
सब के दुःख सह जाएगी
दुःख को सुखों में बदल
अमृत वर्षा कर जाएगी
हे आकाश कुछ दिन ही सही
धरती को आकाश बनने दो ....

आकाश तुम दूर क्षितिज तक फैले हो
देखो फिर भी कितने अकेल हो
तुहारी सतह तक पंक्षी उड़ते हैं
पर वह भी धरती पर आ सुकून पाते हैं
घर अपना आकाश में नहीं
धरती पर ही बनाते हैं
हे आकाश धरती सा धैर्य धर लो ....

बेवजह बादलों को चंचल ना होने दो
धरती को तोड़ने की साजिस में ना फंसने दो
बादल फट कभी भी धरती को ना मिटा पायेगा
बस कुछ शरारती बालक की तरह उत्पात ही कर जायेगा
धरती सहनशील हैं सब सह जाएगी
फिर से प्रफुल्लित और पुष्पित हो जाएगी
फिर से आकाश को झुकने को मजबूर कर जाएगी
हे आकाश तुम बहुत विशाल हो
अपनी बिशालता को अहम में ना फंसने दो
कुछ दिन ही सही धरती सा बन कर देखो ||
..
.सविता मिश्रा

अक्तूबर 02, 2013

हमारा इसमें क्या कुसूर था

अपना उसूल-

काटों पर ही चलना,
अपना जुनून था,

नफरत को प्यार से,
जीत कर आया सुकून था |

क्रोध के अग्नि पर,
प्रेम की बौछार करना,
अपना तो ध्येय था,

निरर्थक नहीं यह व्यय था |
सत्य का आह्वान,
असत्य का विनाश करना,
अपना तो यही उसूल था,



इसके लिए बद होना भी कबूल था
प्यार का सागर नहीं, बन पाये तो क्या,
नदी बनना भी हमें, मंज़ूर था |

आसमा से गिरा दिया, यूँ ज़मीन पर
तू ही बता दे, ओ मेरे 'माही ,
हमारा इसमें,  क्या कुसूर था |
..........सविता मिश्रा
 |
बस चलता तो रूपये को बस में रखती
हालत और हालात तो पक्का सुधरती,
पर बड़ी ही प्रेमांध हुई डालर पर मुई
बात सुनने को तनिक भी तैयार नहीं|
सविता