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नवंबर 30, 2013

+++भ्रष्टाचार है ऐसी बीमारी +++

कौन नहीं है भ्रष्टाचारी ,
जरा हमें भी बतलाओ |
स्वयं को नेक कहने वाले ,

जरा अपने गिरेबान में झांक के आओ |
भ्रष्टाचारी है ऐसी बीमारी ,
जो सभी को लगती है एक बारी |
कोई तो बतायें हमें व्यक्ति ऐसा ,
जिसने कभी ना काम किया हो ऐसा -तैसा |
कभी ना कभी तो लिया है ,
या फिर किसी को  दिया है |
क्या करे देश में फैली है यह महामारी ,
जनता की भी है यह लाचारी |
सभी है यहाँ एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचारी ,
अपने अंदर से ही खत्म करना होगा बारी बारी |
तब जाके कही खत्म होगी यह बीमारी ,
वर्ना दीमक की तरह
चाट जायेगी यह इंसानियत हमारी |
..सविता मिश्रा

नवंबर 25, 2013

~हर बार नया ~

एक चेहरे पर दसियों चेहरे निकले
देखा गौर से तो ना जाने कितने निकले
परत दर परत
हटती रही चेहरों से उसके
जितनी बार देखा हमने उसे पलट के
हर बार एक नया शक्स नजर आया
पल पल भरमाया भटकाया उसने हमें
सोचते थे उड़ती चिड़िया के पर गिन लेते हैं
पर इंसानो ने ही ज्यादा भरमाया है हमें
अपना ही दावा खोखला निकला यहाँ
इंसानों को पहचानने में धोखा खाया
इंसानी दिमाक इतना शातिर हुआ
आँख में धूल झोंकने में माहिर हुआ||...सविता

नवंबर 14, 2013

++बस यूँ ही ++

1...प्यार से समझाती है डांटती है ,
भला हो हमारा जिसमें हर वह काम करती है |
दुनिया के दिए जख्म भी ह्रदय में छुपा ,
बच्चे को उस ताप से दूर ही रखती है |
सविता मिश्रा



2...सो जाये जमीर को अपने सुला कर

या खो जाये नींद में खुद को भुला कर
सभी अपने एक एक कर बेगाने हुए
सोचने पर हुए मजबूर हम
क्या
हम में ही है कांटे लगे हुए| ...सविता मिश्रा



3...माँ तो माँ ही होती है ...

सपने में भी खरोंच ना लगने दे ....
मौत भले आ जाएँ पर .
...
अपने ममत्व को ना झुकने दे| ....सविता




4....दुःख के बाद जो सुख आता हैं
वह पिपरमेंट सा होता हैं
उड़ जाएँ भले ही नामो निशाँ न रहे
पर बड़ी ठंडक हमें दे जाता हैं| ..सविता मिश्रा



5....बादल भी अब अटखेलिया करता हैं
घेरता कही और कही बरसता हैं
बदलिया बहा ले जाती हैं मुई हवाए
चल यहाँ क्यों बरसे यहाँ रहती हैं बेवफाये| ...............सविता .बस यूँ ही

नवंबर 07, 2013

रिश्तों में अब गुड की मिठास कम करेले की कड़वाहट ज्यादा हो रही हैं वैसे करेला भी अब उतना कड़वा नहीं हैं जितना कि रिश्ते में मिल जायेगा ..मुहं पर मिठास घोलने वाले पीठ पीछे ना जाने क्या क्या कह जाते हैं बल्कि यह कहिये कि रिश्ता भी नहीं मानते बस लोकलाज में निभा रहे हैं ...ऐसे रिश्तों को तो ख़त्म कर देना चाहिए पर जान कर भी मज़बूरी में निभाया जा रहा हैं महज लोकलाज बस ...सच में कितनी कडवाहट है यह देख अचंभित हैं हम ..ना जाने समाज घर देश कहा किस ओर जा रहा हैं|...सविता मिश्रा

मिलना बिछड़ना नियति का हैं यह खेल
खून के रिश्तों में भी जमने लगी अब मैल |

सविता मिश्रा