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सितंबर 01, 2014

शिक्षा प्रेम की- यूँ ही मन की बात


१..शिक्षा प्रेम की पर नफरत बढ़ती रही
जिन्दा थी कभी अब लाश होती रही |
२..बेइज्जत नारी की भरे बाजार कर दी
कोफ़्त उस कामी के प्रति जगती रही |
३..हिम्मत दिखाती तो बचा लेती शायद
दिन रात बस यही सोच सोच कुढ़ती रही |
४..अहम् मार सर झुकाए खड़ी चौराहें पर
बुद्धू कह हम पर ही उँगलियाँ उठती रही |
५..स्नेह का आँचल फैला दिया था अम्बर तक
मासूमियत ही अपनी खता बनती रही |
६...कलियों को मसल फेंक दिया अँधेरे में
दरिंदगी के पाश में कई जकड़ती रही |
७..शैतान के अन्दर का जाग उठा इंसान
हैवानियत फिर भी अपार होती रही |
८...दोजख का भी डर काफूर होता गया
दुनिया बढ़-चढ़ कर पाप करती रही |
९...जींस टाप पहन रहती माँएं फिगर बनाए
ऐसी नार पुरुषों की नजर में चुभती रही |
१०..दूध का कर्ज चुकाना हुआ मुहाल अब
पिलाया क्या दुनिया कुतर्की होती रही |
११.. क्या हाल तूने अपना बना डाला सविता
मजलूम कोई तू खुद को ही कोसती रही |
--००--

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