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दिसंबर 17, 2014

+कोई रिश्ता नहीं फिर भी +

कल ही की तो बात है
बैठे बैठे मार रही थी मच्छर
उन्हें मरा देख हुई मन में बेचैनी सी
बुदबुदा लेती मन ही मन
खामखा देख आई
तेरी जान आफत
कुछ दिन या महीने जीने की
ललक थी तेरी
पर मेरे दिमाग की बत्ती गुल थी|

अपना ही खून था पर
उनके शरीर से बहता देख
दिल चीत्कार कर रहा था
ना जाने क्यों एक अजीब सी
घुटन भर रहा था जेहन में 
वह हमें थोड़ा सा ही
नुकसान पहुंचा रहा था
जीने की जद्दोजहद करता
और मैं उन्हें मृत्युदंड के
फरमान सुना रही थी
बिना किसी जिरह के|

दिमाग में १६ दिसम्बर की
पेशावर में घटी घटना
ना जाने क्यों खटक रही थी
बार बार दस्तक दें रही थी
दोनों ही घटनाओं में क्या रिश्ता
पर न जाने क्यों दिल बार-बार
दोनों घटनाओ को आपस में
मिलान करने को कह रहा था |

दिल को दिमाग समझा रहा था
दोनों का दूर-दूर कोई रिश्ता नहीं
पर दिल मानने को तैयार कहाँ था| सविता

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