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फ़रवरी 22, 2015

जीवन

नाच-नाच के
थक गयी जब मैं
बैठ़ गई सुस्ताने
पेड़ की छाँव में
पलक झपकते पेड़
पेड़ ही न रहा
मजबूरन कंक्रीट के जंगलों में
छाया की तलाश में
भटक रही हूँ
समय पंख लगा
उड़ गया पल भर में
हताश मैं
अंधी गली के
कोने में पड़ी
जीवन का
चिन्तन कर रही हूँ
एक एक करके
यादों की परत हटाते हुए
देखो तो मैं मूरख
अपने आप से ही
बात कर-करके
कभी आँखों में नमी
और कभी चेहरे पर हँसी
बिखरा रही हूँ
हठ़ात सडाँध का एक झोंका
मुझे हकीक़त के
दायरे में खींच लाता है
मैं सोच रही हूँ
आयेगा एक दिन ऐसा ही
सभी के जीवन में
फिर भी
भविष्य के लिये
वर्तमान को
दांव पर लगते देख
घबरा रही हूँ मैं
स्वयं की जैसी गति देख
सभी गतिमान की
बेचैन हुई जा रही हूँ मैं
तरक्की की अंधी दौड़ में
भागते-भागते
जीवन की सच्चाई से
रूबरू होकर
फिर से पेड़ की छाँव
तलाश रही हूँ मैं
कठपुतली सा मुझे
नचा-नचा के तू न थका पर
नाच-नाच के थक गयी हूँ मैं |

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
---००---

फ़रवरी 16, 2015

~~कुछ खास लिखूँ~~

आज दिल किया कि कुछ खास लिखूँ ,
अपने अन्तःमन में दबे अहसास लिखूँ |

छोटी-छोटी बातों से  दिल पर
हुए जो आघात लिखूँ ,
या नासूर बन गए जो उन जख्मों का हाल लिखूँ |

प्यार के अहसास की खुशफहेमियां लिखूँ ,
या व्यंग बाण की चुभन की तकलीफ लिखूँ |

जो दिल पर हमारे घाव कर निकल गए ,
उनके लिए निकली दिल से जो बद्दुआयें लिखूँ |

या प्यार से संजोया जिसने हमको रात-दिन ,
उनके लिए निकलती रोज दिल से जो दुआएं लिखूँ |

किसी की मदद कर जो दिव्य-अनुभूति हुई ,
उस अहसास को पिरो शब्दों के जाल लिखूँ |

या उसने जो दुआएं दी उससे खुद को हुई ,
जो सुखद अनुभूति उसका अहसास लिखूँ |

आज दिल कर रहा है कुछ खास लिखूँ ,
अपनी ही अहसासों के जज्बात लिखूँ |
||सविता मिश्रा ||

फ़रवरी 04, 2015

~~सांचे में ढल ना सकीं ~~

मगरूर थी सांचे में ढल ना सकीं
ढ़लने चली तो साँचा ही न रहा |


बेकदरी के जमाने में कद्र कितनी
नापने चली तो कद्रदान ही ना रहा |

खुशियों के बादल घुमड़ते हरदम
भींगना चाहा जब तरसा वह रहा |

निश्चिन्त हो शांति तलासती थी कभी
आज शांति का लगा जमावड़ा रहा |

चीखते-चीखते गले पड़ी खराश
बोले बिन आज पड़ ख़राश रहा |

आगे-पीछे घूमते रहते थे लोग
पदमुक्त तब घर में अकाल रहा |..सविता मिश्रा