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दिसंबर 14, 2016

औरतें मेकअप क्यों करतीं (मन का गुबार )

सीधा सा सवाल फेसबुक पर पूछा था हमने! औरतें मेकअप क्यों करतीं हैं ?? कइयों ने बड़े रोचक जबाब दिए| कईयों की कुंठा दिखी जबाब में|

हर किसी के द्वारा सवाल पूछने का कारण अलग अलग होता है। और जबाब भी आदमी अपने मनःस्थिति के अनुसार देता है| सवाल-जबाब करते वक्त आदमी के मन में क्या चल रहा हैं यह कोई न जान सकता! ख़ासकर सवाल के सन्दर्भ में | हाँ उत्तर कई मजे में देतें, कई गंभीर होकर| कईयों को ऐसे वैसे सवाल पर गुस्सा आता तो वो धो भी देते| उत्तर पढ़ते ही समझ आ जाता क्या कहना चाह रहा कहने वाला| किन्तु प्रश्न का प्रयोजन प्रायः नहीं समझ आता|
जैसे हमने देखा इसी सवाल के साथ किसी दुसरे की पोस्ट को | वहां अलग तरह के आंसर थे|
फ़िलहाल हम सोचे थे  अपनी फेसबुक फ्रेंड लिस्ट वालो का मंतव्य जाने इस सवाल से। 😊इसी लिए लिखे भी कि ओन रिश्क पर जबाब दें | पर शायद कई ओन रिश्क लिखने का मतलब न समझे, या फिर उसे ध्यान से न पढ़े! लापरवाही अक्सर घातक होती है! यही हुआ यहाँ भी |

कइयो ने जबाब दिया कि पुरुषों को लुभाने के लिए करती हैं | बड़ी अजीब बात लगी, क्रोध भी खूब  आया | जबाब  पढ़  के लगा आदमी ने अपनी सोच न बदली, जमाना भले इतना बदल गया | वह खुद घंटो मेकअप करने लगा| पार्लर में जाकर संवरने भी लगा| लाली लिपस्टिक भी पाए तो लगाने से चुके न | पर औरतें सजे तो वह लुभाने के लिए या सिर्फ पति के लिए सजे | वरना पागल जैसी टहले !!
भई वाह ! कंघी करके सलीके से कपड़े भी पहन ले तो सजना समझ बैठते लोग| फिर वह व्यूटी पार्लर में भारीभरकम मेकअप को क्या कहेंगे ?
हमें तो लगता है आदमी जलता है कि औरतों के लिए इतने सारी प्रसाधन सामग्री आखिर क्यों बनी? इतने सारी वैराइटी कपड़ों की क्यों है| उसके लिए नाममात्र की ही  क्यों?

...सोचे थे ऐसे माथा ठनकाने वाले जबाब वालों को उड़ा देंगे| फिर सोचे सब का अपना अपना दिमाग, अपनी अपनी सोच |
सच, और मन की बात बोलने के लिए क्यों हटाये किसी को| हो सकता है जो ऐसा न बोले हों, पर सोच ऐसी ही हो उनकी भी तब !! कपड़े और मेकअप पर आदमी की सोच अक्सर औरतों की सोच से टकरा जाती ही है|
औरतें सज ले, मुस्करा दें, छज्जे पर खड़ी हो जाये तो आदमी को खल जाता क्यों भई ? क्या वह जीव न, क्या उन्हें बंद घर में घुटन न होती? क्या  उन्हें  आपकी  तरह स्वछन्द  न सही  पर  स्वतन्त्र  रहने  की आजादी न !

भगवान के लिए ऐसी मानसिकता से बाहर निकले| यदि आप लुभाने क लिए सजते हैं तो आप हम औरतों के लिए भी सोच सकते हैं , क्योकि सब कुछ बदला जा सकता पर सोच अचानक से किसी की न बदली जा सकती|

वो जमाना गया जब दो साड़ी में दादी, ताई, चाची की जिन्दगी बीत जाती थी| अब जमाना अलग है अब औरतें घर के बाहर निकल रहीं और पागल की तरह बाहर नहीं निकल सकतीं | उनसे उनकी सुन्दरता के आयाम छिनने से अच्छा है आप अपनी कुंठित सोच अपने मन व दिलो-दिमाग से छीन लीजिए| सविता

नवंबर 19, 2016

लक्ष्मीबाई के जन्मदिन पर मन की बात

आत्मा सुकून पायेगी ...:)
सभी नारियों और बच्चियों को झाँसी की रानी बनने-बनाने का आह्वाहन!
कभी अंग्रेज सत्ता काबिज करने को लड़ते थे| पर आज के अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम हम भारतीय नारियों पर ही कुदृष्टि डाल रहें हैं| एक गुलाम दूजे को गुलाम बनाने पर तुला| हास्यास्पद हैं यह तो ...| खुद जियो और औरों को भी जीने दो चैन से |
नारियों गुलामी का सख्त विरोध करो मिलकर| तलवार न सही किताबें थामों हाथो में और अपना परचम लहराओं| टूटपुजियें छक्के-छिछोरे, जो हर वक्त ताड़ते हैं आपको , भद्दी टिप्पड़ी करते हैं, मुहं तोड़ जबाब दो उनका .....|
हार्दिक शुभकामना सभी को ...|

और ......
लक्ष्मीबाई की जन्मदिन पर भी हार्दिक बधाई .....| दस स्त्री भी हर जन्मदिन पर उनकी तरह बनना चाहेगी तो उनकी रूह सच में सुकून पायेगी|....सविता

सेवा का फल

Dinesh Tripathi भैया आपकी बात का जबाब ......:)

सेवा का फल-

बड़ी शिद्त्तो के बाद
पति पर शासन कर पाते
ना जाने कितने सालों के
सेवा का फल हम पाते|
चंद दिनों में हम पतिदेव को
अपना आदेश कैसे दे पाते
सालों-साल तपस्या करके
हुक्म फिर हम उनपर चलाते|
शुरू-शुरू में तो डरे सहमे से
एक कोने में खड़े हो जाते थे
जो आदेश मिलता वह
इमानदारी से निभाते थे |
नहीं थे पहले अपने यह तेवर
डर-डर ही जीते थे हम भी
अपमान का घूंट रह-रहकर
कभी-कभी पीते थे हम भी|
अब मुद्दतों बाद
सेवा कर-करके
यह स्तिथि है आई
हुक्म चलाने की नौबत
बड़ी मुश्किल से है पाई|

आज की नवयुवती 
जाते ही ससुराल 
शासन करना चाहती
बन के सास की काल |

वृक्ष को ही जड़ से झकझोर देती 
पति के दिल को भी वह तोड़ देती 
पिज्ज़ा बर्गर सा झट बनता समझ लेती  पकवान 
बीरबल की खिचड़ी बनाने का होता नहीं उसे भान |

जल्दीबाजी की होती उसे होड़  
घर प्यारा अपना देती वह तोड़ |

अकेले रहकर सारा जीवन अपना काट देती 
या फिर रिश्ते को ही टुकड़ों में वह बाँट देती |..
क्षुधा शांत करनी हो गर तो बीरबल सा रखो सब्र 
वरना फिर खोद लो अपने ही मुहब्बत की कब्र |

हर पत्नी की दशा और दिशा ...:) सविता मिश्रा
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12 March 2013 at 18:15 · Like · 1

नवंबर 18, 2016

भुक्तभोगी हैं क्या ...:)


गुरुत्वाकर्षण का नियम कहिये या मंथरा जैसे लोगों की उपलब्धी .....!! बुराई जहाँ, जिससे शुरू होती हैं, घूम फिर के फिर वहीं आ जाती है ....!! बस उसमें नमक मिर्च और हाँ खटाई भी लग जाती है ......!!
उदाहरण बताते चले ...!
जैसे आपने कहा 'यार शर्माइन बड़ी कंजूस हैं, इतने घटिया कपड़ें या चीजें उपहार देती है कि जी करता है कि किसी को दे दे! पहनने लायक होते ही नहीं ....!!
यह बात दुसरे के पास फिर तीसरे के पास पहुंची .......! तीसरे से फिर शर्माइन के पास और शर्माइन फिर गुस्से में तमतमा आपसे आकर बोलेगी कि "तुमने कहा कि हम (शर्माइन) बड़ी कंजूस हैं, इतने घटिया कपड़ें या चीजें उपहार देते हैं कि तुम्हारा जी करता है कि मुहं पर हमारे ही फेंक दो .... ! हम लेने को चाहते है कि कोई हजारों की दे और खुद सौ की भी देने में माई मरती हैं हमारी ....! कैसे कहा ऐसा तुमने ....?"
हिदायत :) कोई शर्माइन मुहँ न फुलाना ....जो कोई शर्मा शर्माइन हो यहाँ :) सविता

नवंबर 15, 2016

जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई (आलेख)


दुनिया में न जाने कितने प्रकार के दर्द हैं। इनमें से जब एक भी प्रकार का दर्द खुद पर पड़ता है, तभी पता चलता कि दर्द में कितना दर्द होता है।
दर्द को भोगे बगैर कोई कैसे जान पाएगा दर्द की इन्साइक्लोपीडिया| उसको जानना हैं तो दर्द तो भोगना ही पड़ेगा| वैसे भी इस जहान में ऐसा कोई नहीं जिसे दर्द से रूबरू न होना पड़ा हो| इधर कोई जिस प्रकार के दर्द से रूबरू हुआ उधर उसको उस दर्द से पीड़ितों का दर्द समझ में आया| 'जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई' कहा ही गया है।
किसी हथियार, या फिर गिरने-पड़ने से तो चोट लगती रहती है| पर इन चोटों के घाव जल्दी भर जाते हैं। लेकिन बातों से जो घाव लगते हैं वे कभी नहीं भरते| हम सब यह सुनते ही रहते हैं कई बार।
बातों की चोट तभी लगती है जब हम मन से घायल होते है| जब हम मन से स्वस्थ होते तो यह बातें महज़ शब्दबाण की तरह दिखती हैं | जिसे हम स्वयं भी दूसरों पर बेफ़िक्री से छोड़ते रहते हैं| परन्तु जैसे ही ये बातें हमारे घायल मन पर पड़ती है तो ये सामान्य सी बातें भी व्यंग्य बाण बनकर सीधे हृदय के विच्छेदन की क्षमता रखती हैं| हमारे अंदर का कोई सूखा हुआ घाव भी हरा हो जाता है, ऐसे व्यंग्यात्मक बाणों से| तभी हमें "जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई" कहावत का अर्थ समझ में आता है|
ऐसा लगता है, कुछ तो ऐसा असामान्य नहीं कहा गया, परन्तु जब तक खुद को न लगे वह शब्द बाण, अपने सूखे जख्म, हृदय के किसी कोने में सुषुप्तावस्था से जागृत नहीं हो जाते, हम नहीं समझ पाते।
बातों की चोट पर एक बात याद आई जो कहावत से ही सम्बन्धित है| कहावत का मतलब तो सामान्य सा ही होता है, पर यदि वह कहावत किसी ऐसे व्यक्ति के सामने कही जाये जिसपर यह कहावत चरितार्थ होती हो, तो उन्हें अवश्य चोट लगतीं है|
वह कहावत है- 'बाँझ बियाय न बियाय देय'। अक्सर आप सभी ने भी सुना ही होगा इस कहावत को, अपने गाँव के अंचल में| कोई जब न खुद कोई काम करे न किसी को कुछ करने दे, ऐसी स्थिति में अक्सर यह कहावत कही जाती हैं गाँवों में। यह कहावत तब तक सामान्य सी लगती थी जब तक हम इसे ऐसो के सामने न कहें जहाँ कोई बाँझ स्त्री हो|
एक बाँझ(गर्भधारण में असक्षम) औरत के सामने इस कहावत को कहते ही आप खुद देखेंगे कि इस कहावत को सुनकर कोई भी बाँझ स्त्री बेइंतहा पीड़ा से भर सकती है। आपको उसकी पीड़ा उसके चेहरे पर उभरती हुई दिख जाएगी| फिर महसूस करिये उसकी पीड़ा!! यदि आप दिल से उस पीड़ा को महसूस करेंगे तो आपको लगेगा कि आप को जैसे किसी जलती अंगीठी पर बैठा दिया गया हो।

यदि दूसरों के दर्द को हम महसूस नहीं कर पाते हैं तो हममें संवेदना का आभाव कहा जा सकता है| किन्तु जिन्दगी के किसी भी मोड़ पर ऐसी कोई बात तो हर इंसान के साथ हो ही सकती है जो उसे दर्द पहुँचाती है| या हर इंसान की दु:खती रग होती है कोई न कोई बात। बस उस दुखती रग पर कभी हाथ रखिये, फिर देखिये। वह आहत होते ही कराहकर कह उठेगा कि जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई!!!

बड़ी बिडंबना है कि हम कोई भी बात तब तक बड़े सामान्य होकर बोल लेते हैं , जब तक उस बात से खुद न आहत होते हो। खुद के आहत होते ही हमें पता चलता है कि हम कितना गलत बोल गए..! फिर लाख माफ़ी मांगकर भी व्यंग बाण से हुए दिल के घाव नहीं भर सकते हैं..! भले ही कितनी भी कोशिश क्यों न करें।

कई कहावतें ऐसी हैं जिनका अर्थ बड़ा सीधा और सरल सा है| पर कहावत बड़े टेढ़े अंदाज में कही गयी है| जैसे कि 'भैंस के आगे बीन बजायें, भैंस खड़ी पगुराय', 'अंधे के आगे रोये, अपने दीदे खोये, 'या फिर '
कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी चलती रहती अपनी राह' |
बड़े बड़े घाव किये है ऐसी ऐसी कहावतों ने| और ऐसी कहावतें यह कहने को भी मजबूर करती हैं कि जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई|
--सविता मिश्रा

नवंबर 10, 2016

सामयिक घटनाक्रम पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी-(नोट की चोट)

मोदी भैया यहाँ दो दिन सब की ढ़ोल बजाने के बाद टोक्यो में बड़ी ख़ुशी से ड्रम बजा रहे हैं | देख के लगा कि उन्हें इस तरह बड़ा मजा आ रहा है| और यहाँ विरोधी से लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले तक...अरे इस बात से याद आया कि कहाँ हैं हमारे अन्ना चाचा .. बहुत दिनों से दिखे नहीं ..? हम तो समाचार घंटो देखे |

देश में इतनी उथल-पुथल हो गयी| और वह बाल्मीकि की तरह बिलकुल शांत हैं| तपस्या रत हैं लगता है| जो शांत थे वह दुर्वाषा रूप में दिख रहें हैं | दो दिन में न जाने कितनी गृहणियां दुर्वाषा बनकर मोदी भाई पर अपने मुख से अग्निवाण बरसा चुकी हैं| एक जन विश्वामित्र बनने की कोशिश में थे दो दिनों से, लेकिन आज वह भी मुखर हुए| कह रहे थे कि उन्हें समझ ही नहीं आया कि 2000 के नोट चलाकर भ्रष्टाचार कैसे रोका जा सकता है|

सबकी राजनीतिक बहनजी कह रही हैं कि श्री मोदी जी अपने 100 साल के खर्चे के लिए पैसे विदेश में छुपा आए| हमें भी अफ़सोस है। मोदी भैया को ख्याल रखना चाहिए अपने भाई बन्धुओं का भी|

हम जनता का क्या है, किसी न किसी तरह तोड़-मोड़कर अपनी जुगाडू राह निकाल ही लेंगे| परन्तु चुनाव आ रहें| आप अपने खर्च का इंतजाम तथाकथित ही सही, कर लिए और सब अपने संगी-साथियों को मौका ही न दिए| इतनी बड़ी नाइंसाफ़ी कर कैसे सकते भई आप !

हम सोच रहें है और विनती भी कर रहें प्रभु से, सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं आप सभी के लिए भी कि वहीं टोक्यो में ही बजा लीजिए। अरे बाबा ड्रम, फालतू ही न सोच लिया करें आप सभी | अधूरी लाइन पढ़ना सोच के लिए घातक हो सकती है|

मतलब जितना मन करे, उतना ड्रम जोश से वहीं बजाइए। फिर आकर अपने देश में मत बजा डालियेगा सबकी| बड़ी मुश्किल से लोग तोड़ निकाल रहें हैं आपके सुर-संगीत की| भ्रष्टाचार से उबरने के आपके इस अभियान में कितनी बेतुकी राहें अपनाए हैं लोग, आप न जानेंगे| अपने ही करारे नोटों को घाटे में देकर तुड़े-मुड़े से सौ-पचास के नोट लेकर अपने लाकर में रखने का दर्द आप क्या जानें| समचार पढ़-सुनकर आप जान भी गए होंगे, पर समझेगें नहीं|

दो हजार के नोट के रूप में मंजिल तो आपने सबकी तय कर दी है एक महीने समय देकर| अब तो मंजिल पर पहुँचना मज़बूरी है सबकी| रास्ते में ही अटक भी गए यदि मंजिल समझ, तो वह रद्दी बन कर रह जाएगी ३० दिसम्बर तक | अतः सब भले ही संकरे, छोटे, कांटे भरे रास्ते चुनें लेकिन मिलेंगे आपकी बनाई मंजिल पर ही| उसके लिए अपनी ब्लैक में से व्हाईट के लिए जरा कुर्बानी भी देंगे ही|

आपने स्वच्छ भारत का सपना नोटों के लिए भी साकार कर ही दिया हैं | यकीन करिए, जनता हर हाल में चाहती है कि यह स्वछता कायम रहें | जनता से अलग हटकर जैसे ही आदमी कुरता पायजामा पहनकर नेता बन जाता है, वह स्वछता भूलकर ब्लैक होने लग जाता है| उसके काले होते ही उसकी परछाई जिस जिस पर पड़ती है वह भी उन्ही के रंग में रंगता जाता है| जबकि सब देशवासियों का दिल कहता है कि रे नेता, न कर, न कर, गंदा तन-मन-धन! पर दिमाग़ है कि इस भ्रष्टाचार के खेल में रंगता हुआ देश की धरती को अस्वच्छ कर देता है | #सविता

अक्तूबर 31, 2016

धनतेरस की हार्दिक बधाई

धन, धन की ओर झुकने को बेताब हैं | सही बात है कि जहाँ लक्ष्मी होतीं हैं पहले से लक्ष्मीजी भी वहीं जाने को बेताब रहती हैं| कुटियाँ वाले को मिठाई कौन भेंट करने पहुँच रहा|
उपहारों में बड़े बड़े गिफ्ट देने निकले लोगो को शायद यह नहीं पता कि जो गिफ्ट उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई से खरीदकर दुसरों पर लुटाने जा रहे हैं उनकी कीमत वह समझता ही नहीं है | या पता है पर वह इसे नकारते हुए उपहार भेंट कर रहा उसे, जिसको इसकी जरूरत ही नहीं |
घर के किसी कोने में पड़ा रहता हैं वह उपहार उपेक्षित होकर | या फिर उपहार स्वरूप ही किसी और के घर की शोभा बन जाता हैं जाकर |....इससे अच्छा गरीबों को दे वह खुश भी और लाखों दुआए भी|
 पर हाय रे इंसान तू कभी ना सुधरा ......| अब क्या सुधरेगा ....| धन की बर्बादी और व्यापारियों की आबादी पर दुखी आत्मा ..| सविता

आप सभी को धनतेरस की हार्दिक बधाई|  कल किसी पर तो धन वर्षा होगी ही ..:)

कलयुगी भगवान् भी ना जाने कैसे कैसो पर मेहरबान हैं आजकल :) :)

अक्तूबर 21, 2016

~~मन को जो भाये वो करिए~~मन की बात या फिर कहें गुबार :)


जो मन भाये वो करिए, बस मर्यादा में रहिये|
तोड़ने की जिद न हो, हों सकें तो जोड़ते रहिये|

कोई भी व्रत-उपवास अच्छा ख़राब नहीं होता है| न हमारी रीतियाँ- परम्पराएँ अच्छी -ख़राब है!! हाँ इसे न मानने वाले खराब और मानने वाले अच्छा कहते रहतें हैं गाहे-बगाहे|
फेसबुक पर हुई व्रतों की निंदा- और गुणगान साबित करते है कि सब तरह की सोच वाले हर कहीं पर हैं | घर हो, समाज हो, चाहे यह मायावी दुनिया|
करवाचौथ और तीज दोनों ही व्रत अपने आप में महत्वपूर्ण है| तीज जहाँ बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश में ज्यादा मान्य है वही करवाचौध टीवी के कारण पुरे भारतवर्ष में प्रचलित हैं| तीज जैसा महत्वपूर्ण व्रत पश्चिम की तरफ किसी को पता ही न शायद|
कितने सारे व्रत बच्चों और पति के सुख,समृद्धि, आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य के लिए रखे जाते हैं| कई व्रत प्रचार-प्रसार के अभाव में न जाने किस घुप्प कुँए में जा फंसे हैं|
अतः ऐसा लगता है कि महिमामंडन पर सब निर्भर| जिन्दगी से जुड़ी चीजें हो या समाज से जुड़ी, प्रचार मायने तो रखता हैं!! जिसके बारे में कोई बतायेगा नहीं , जागरूक नहीं करेंगा, कोई नहीं जान पाएंगा | बुराई- हो या गुणगान दोनों ही प्रचार का हिस्सा बनते है, न कि किसी रीति-कुरूति पर रोक लगाते है| नास्तिक टाइप के लोगों को भी किसी के विश्वास पर कुठाराघात कभी नहीं करना चाहिए| क्योंकि जिसका विश्वास जिस किसी में है, वह करने में बुराई है ही न| चाहे वह तथाकथित पाखंड ही क्यों न हो|
व्रत तो हमारे जीवन में रंग भरते| व्रत रहे न रहे कोई परन्तु आडम्बर का नाम न दे इसे ...| बहुत दुःख होता है, यह सुन -देखकर..| यह बात सही हैं कि सारे व्रत पहले भी रखे जाते रहें हैं, आज बस इनका महिमामंडन हो गया है| अच्छा है न आजकल की नयी पीढ़ी सहर्ष स्वविकार कर रहीं हैं| कितना भी हम कहें कि नयी पीढ़ी परम्पराओं से दूर भाग रही, परन्तु न जाने क्यों ऐसा लगता नहीं है| मंदिरों में भीड़, बजारवाद के कारण ही सही बाजारों में त्यौहार -व्रत के दिन भीड़ साबित करती है कि नयी पढ़ी और ज्यादा अधीरता से हमारी पुरानी परम्परा की नींव को मजबूत कर रहीं हैं|
अभी बीते समय में यहाँ फेसबुक पर पितृपक्ष को लेकर जब जंग सी छिड़ी थी| माता-पिता का तिरस्कार करके, उनके मरने के बाद श्राध को आडम्बर कहके औचित्य पर सवाल उठाया रहा था| जरुरी थोड़े जो अपमान कर रहें थे, वह यह आडम्बर करते हैं | श्रद्धा से जो अपने माँ-बाप का श्राध कर रहा है, जाहिर है उसे बहुत बुरा लगता होगा ऐसा कुछ पढ़कर,सुनकर|
सवाल था कि जो आदमी जीते जी सुख शांति न दिया वह मरने पर क्या करेगा शन्ति के लिए| लेकिन शायद अपने माता-पिता का तिस्कार करने वाले लोग भी डर से करते कि कहीं माँ बाप भूत बन न आए...| सब दिखावा होता या डर या मन की सन्तुष्टि!! राम जाने!! पर यह उनकी अपनी इच्छा हैं| वैसे भी भय बिन प्रीत हुई कब है!! वह जिन्दा रहते हो या मरने के बाद, परोक्ष रूप से तो भय ही छुपा होता हैं न | चाहे समाज का भय या फिर मान्यताओं का|
हर धर्म के लोगों में श्रद्धा होती है अपनी-अपनी ढंग की | हिन्दू धर्म में भी वही श्रद्धा परम्परा चली आ रही है!! फिर हिन्दुओं में आपस में ही इतना विरोध क्यों? यह सच है कि कई लोग कई परम्पराओं, रीतियों ( कुरीतियों नहीं कहेंगे) को नहीं मानते, पर मानने वालों का विरोध भी नहीं करना चाहिए| हाँ तरीके से यानि मर्यादा विरुद्ध हो तो टिप्पड़ी जरुर करें परन्तु उनका विरोध हरगिस नहीं करियें !!
माना कई चीजें अन्धविश्वास है.हमारी नजर में , दूसरों की नजर में हो सकता है वह विश्वास हो| हम जिस चीज पर विश्वास कर रहे हो सकता है दुसरा हमें अन्धविश्वासी मान रहा हो| कुल मिला के अपनी राय रखना अलग बात है, परन्तु किसी के विश्वास को कटु शब्दों में अन्धविश्वास कह देना अलग बात|
मन की शांति के लिए उस अन्धविश्वास में यदि कोई विश्वास जमाये है, तो बुरा क्या हैं ..? उससे आपको कोई तकलीफ तो है न| मन के संतोष के लिए ही तो आदमी इतनी भागादौड़ी करता है| किसी को अपनी परम्पराएँ अपनी रीति को निभाने से संतोष मिल रहा, तो बुराई भी न| उनके संतोष में आपको बुराई भले नजर आयें पर यह उनके लिए शायद बड़े पुण्य का काम हो| अतः जब तक किसी भी परम्परा से किसी दुसरे को शारीरिक तकलीफ न हो, उसे करने से रोकने का हक किसी को भी नहीं है|
ऐसे तो पितृपक्ष पर सवाल उठाने वाले मरने के बाद क्रियाकर्म जो होता, फिर जो १३ दिन का पूरा कार्यक्रम होता है, उस पर भी सवाल उठा सकते हैं| सवाल उठाने के लिए तो हिन्दूधर्म क्या, सभी धर्मो में हजार मुद्दे है| यहाँ हमारी युवा पीढ़ी अवश्य भटक गयी है ! शायद उसका कारण है समय की कमी| वह हर काम फटाफट चाहती है, पर यह तेरही तक का शोक कार्यक्रम जल्दी तो नहीं ही निपट सकता| हां साल भर के झंझट से वह मुक्त होना चाहती है| फिर भी ठीक है, जितना श्रधा से हो जाये अच्छा है| यह उसकी भी श्रधा की बात हैं न|
सब चीजो पर सवाल उठाने सवाल वाले उठा सकते है..!! व्याह हो, मुंडन हो, जनेऊ हो, व्रत हो, पूजा हो सब में दिखावा भारी पड़ रहा| शादी व्याह में होने वाले पांच -छ फंक्शन!! ..सब आडम्बर ही तो है ..| किन्तु सबका प्रतिकार तो नहीं होना चाहिए न | आपके लिए आडम्बर परन्तु दुसरे के लिए वह पल ख़ुशी, सौहार्द के पल होते हैं|
पूजा पाठ ...के लिए 'रैदास तो कह गयें हैं कि मन चंगा तो कठौती में गंगा ..' लेकिन फिर भी सभी धर्म के धर्म स्थलों पर इतनी भीड़ क्यों होती फिर ..?? सब विश्वास और भावनाओं के कारण ही न|
ग़रीब तो सबसे बड़े आडम्बरी ही होते...| ऐसा स्वांग रचते जैसे बड़े बीमार और निहायत ही गरीब हैं, पर लाखों के मालिक होते कई, फिर भी भीख मांगते फिरते ...| ऐसे मुहँ बना के सामने हाथ पसार खड़े हो जाते कि आदमी अपनी हाड-पसीने की कमाई उन्हें मुफ्त में खिला दे..| कभी कभी लगता है क्यों खिलाये मुफ्त, इन हट्टे-कट्टो को ..| फिर भी आडम्बर है जहान में ..| परम्परा भी है गरीबों को भोज कराने की| कई शिद्दत से निभाते है इसे भी ..| इसी कारण शायद आजकल हर दूसरा आदमी एनजीओ खोल के व्यापार करने लग पड़ा है ....| दान देने वाले उन्हें दान देकर पुण्य कमा रहे हैं |
व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार आडम्बर, श्रद्धा और श्रद्धा आडम्बर कहलाता रहता| फ़िलहाल हमारी परम्पराएँ कुछ तो कहती ही है..राज गहरा है, विरोधी लोग क्या समझे, जब समर्थक भी सही से समझ न पाए अब तक| परम्पराओं को अन्धविश्वास, आडम्बर कहने की दौड़ में हम शायद मूल को भूल, शूल की राह तैयार कर रहे| मर्यादा में रह परम्पराएँ निभ रहीं हैं तो निभाने दीजिए न|
'जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तीन तैसी' ! लोग हर बात पर यह घिसापिटा राग अलापते हैं! आज हम अलाप रहें हैं, अपने इस लेख में| आपको जहाँ भी लगे हम गलत है इस कहावत को हम पर थोपते जाइए |

अक्तूबर 03, 2016

~~ मेरी कलम~~

मैं तो कुछ भी ना थी,
तूने ही तो हमें

कुछ बना दिया।
जो छुपे थे भाव
दिल की गहराइयों में,
तूने ही उन्हें
सार्थक शब्दों से बूना।

भावों को मेरे शब्द दिया,
मूक भावना को मेरे
उनका अर्थ दिया।
स्वयं भी थी मूक
पर कागज पर आते ही,
विद्रोही,पीड़ित बनी
एवं हमें भी तूने
कुछ यूँ ही बना दिया।
तूने मुझे ताकत दी हिम्मत दी,
करूँ कैसे धन्यवाद तेरा
ओ मेरी लेखनी!

कलम थी एक आम
तू भी मेरी तरह,
पर तूने ही हमें
आम से खास बना दिया
तू भी अब मेरे लिए
बहुत ही है खास |
क्योंकि तेरे ही तो
सहारे मैं अल्पज्ञ से,
सर्वज्ञ्य की ओर
बढ़ने की कोशिश में हूँ।

तू भी मेरा साथ देना
ओ मेरी कलम !
मेरी मूक भावना को
आवाज देना ओ मेरी कलम !
मैं तो कुछ भी ना थी,
तूने ही हमें सब कुछ बना दिया।

८/५/२०१२

~जरा चैन से जीने दो~


धरा पर नहीं जीने देते
हमें इन्सान!!
गिद्धों के हवाले है यहाँ सारा आसमान!
धरती पर शैतानो का है बोलबाला
तुम आसमान से आँख दिखाते हो!!
जायें तो जायें कहाँ ?
हमारे पूछने पर
नरक की राह हमें बताते हो!
तुम जब जी सकते हो
तब हमको क्यों नहीं जीने देते हो!
हमसे तुम हो ! तुमसे हम नहीं!
फिर भी जहर का घूंट क्यों पीने देते हो !!

हम नारि
याँ नहीं रहेंगी तो तुम कैसे आओगे
सोचो जरा, कुछ तुम भी विचार करो
ना यूँ दर्द दो हमें धरा और आसमान से
नहीं रह पाएँगी हम इस सृष्टि में
बिना प्यार के इस जहान में
जब तक जिओगे, सर दीवारों से फोड़ोगे
पछाताओगे बहुत, खून के आंसू बहाओगे !

न घर होगा, न होगा घाट कहीं भी
रहना होगा तुमको कहीं वीराने में !
अतः मान लो 'सविता' की बात तुम
खुद जियो चैन से और औरों को भी
जरा चैन से तुम जीने दो
अत्याचार कर नारियों को
यूँ तुम कभी मजबूर मत करो!

वरना होगा बांस और
न बजेगी कभी बांसुरी !
एक-एक कर नारियाँ तुमको ही
जन्म नहीं लेने देंगी कभी भी
फिर हाथ मलते रह जाओंगे
भूले से भी नारियों का संसार न पाओगे!!
सुना ही होगा बुजुर्गो से कभी
नारियाँ जब बदला लेने की ठानती हैं
फिर वह आगा-पीछा नहीं निहारती हैं |...सविता मिश्रा

तोल मोल के बोल

तोल मोल के बोल
शब्द हैं बड़े अनमोल
दुखे दिल किसी का
मुख से ऐसा कुछ न बोल |

वाणी में अपने अमृत घोल
कड़वा तू कभी न बोल |

शब्द ऐसे न बोल कभी
जो घाव कर जाए
अन्दर ही अन्दर दिल में
जो नासूर कर जाए |

निकाले न मुख से वह शब्द जिससे
किसी के भी मन में मलाल आए
शब्द बाण से वह विचलित हो जाए
और उसके नयन छलछला
 जाए |

शब्द नेक बढाएं मान सदा
कुटिल शब्द अपमान करा जाए |

तीर तलवार के घाव भर जाते हैं
शब्दों के घाव नासूर बन जाते हैं
सोच-समझ के ही तू बोल जरा
कम बोलने वाले ही सबको भाते हैं |

उटपटांग बोल
समय-समय पर
दिल को उद्धेलित करते है
घृणा-ईर्ष्या, बदले की आग को
सदा प्रज्जवलित करते हैं |

शब्द कहो नहीं ऐसेजिससे
किसी को तुमसे घृणा हो जावे
कानों में पड़ते ही शब्द तुम्हारे
उसका ह्रदय तार-तार हो जावे |


बोलो ऐसे शब्द जो कर्ण प्रिय हो
हृदय भी शब्द-सार से प्रफुल्लित हो |

तोल मोल के बोल
शब्द बड़े हैं अनमोल
प्यार के मीठे दो बोल से
दिल के दरवाजे तू खोल
जरा तोल मोल के बोल...||

.~हम बच्चे हैं~


हम बच्चे है, इतिहास पढ़ने में कच्चे है|
पर सदा ही अपनी बात के पक्के है|
इतिहास हैं कि बढ़ता ही जाता है
रोकेंगे हम इसे बढ़ने से
कभी वीर लड़े थे स्वंत्रता को
हम बच्चे इतिहास से लड़ेंगे|

लड़ेंगे भी लेकिन कैसे
लड़ने से इतिहास बढेगा
हमारी लड़ाई भी उसमें
लिख दी जाएगी विस्तार से
रोकेंगे हम फिर कैसे और
बचेंगे इसके हम बोझिल विस्तार से |

यह बढ़ता ही जा रहा
एक परिवार की तरह
हम न लड़ेंगे और
न ही लड़ने देंगे किसी को|

बस इसी तरह रोकेंगे
बढ़ने से इतिहास को|
देंगे अगली पीढ़ी को हम
इतिहास की पुस्तकें पतली|
हम बच्चे हैं इतिहास पढ़ने में कच्चे है|
पर सदा ही अपनी बात के पक्के है| सविता मिश्रा

~छन्नपकैया~


छन्नपकैया छन्नपकैया देखो तो तितली आई
भैया तुम दौड़ो, पकड़ो न उसे वह डर जाई|

छन्नपकैया छन्नपकैया देखो सुनो बंदर तुम भाई
हमसे क्या दुश्मनी, हमसे छीनकर क्यों रोटी खाई|

छन्नपकैया छन्नपकैया क्यों करते चूहें तुम धमाचौकड़ी
बिल्ली मौसी पालूँगा, फिर भूल जाओगे तुम यह हेकड़ी|

छन्नपकैया छन्नपकैया छछूंदर जीजी क्यों इधर आई
मैं डरता हूँ तुमसे, मेरी माँ कितना तुमको समझाई|

छन्नपकैया छन्नपकैया भैया कुत्ते तुम जल्दी घर आना
दिनभर खेलना मुझसे नहीं तुम तनिक भी सुस्ताना |

छन्नपकैया छन्नपकैया रानी मछली जल की
मुझे छोड़ अकेला, तुम अकड़ कहाँ चल दी |

छन्नपकैया छन्नपकैया शेरो की हो तुम मौसी बिल्ली
डरता  देख मुझे तुम उड़ाती हो हमेशा मेरी खिल्ली |

छन्नपकैया छन्नपकैया मेरे प्यारे मिट्ठू तोता भाई
तुम्हारें फायदें सुनकर ही मम्मी तुम्हें घर ले आई |

छन्नपकैया छन्नपकैया खूब दो जानवरों और panक्षी को प्यार
मम्मी पापा कहते मेरे , बदले में तुम्हें भी मिलेगा स्नेह अपार| सविता मिश्रा

अक्तूबर 01, 2016

~नियम कानून में फंसा साहित्य ~कुछ मन की



तकनीकि के जाल में फँसता साहित्य उचित है भी और नहीं भी | उचित उनके लिए जो लिखने की इस तकनीकि को जानते समझते है | अनुचित हम जैसे फक्कड़ो के लिए | हर चीज लिखने का एक नियम होता है| सत्य बात है यह और उसी नियम के कसौटी पर कसा हुआ साहित्य को ही साहित्यकार साहित्य कहते है, और मानते भी है | बाकी को कूड़ा कह वो एक सिरे से नकार देते हैं |

पर हमारा मानना है कि जो दिल से लिखा जाय और दिल तक पहुँच जाय वह सच्चा साहित्य है | भले उसमें तकनीकि खामियाँ क्यों न हो | इससे फर्क नहीं पड़ता है | पर मठाधीश साहित्यकारों को कौन समझाए भला |

दिल से लिखी कविता जब दिल तक पहुँचती है तो उसका शोर फेसबुक पर भी साफ़ साफ़ दीखता है | लोग पसंदगी के साथ शेयर भी करते है | हमें कोई यह बता दें कि क्या किसी साहित्यकार की कविता सामान्यजन ने इतनी ज्यादा पढ़ी और शेयर की है | नहीं बिलकुल नहीं क्योंकि वह कविता शब्दों के खेल में दिमाग का इस्तेमाल कर तैयार की गयी है और सामान्यजन दिमागी खेल नहीं खेलता| वह दिल को भाने वाली कविता , कहानी और कथा पढ़ता और सुनता है |

दिल के खेल में दिमाग कभी ठहरा है क्या भला ! दिल से लिखिए दिल तक पहुँचिये | दिमाग से तो बस दिमाग वालों तक ही पहुँच पाएंगे आप | दिमाग वाले उसमें भी दिमाग लगा आपका छंद विच्छेदन कर देंगे |

माना नियमों को तोड़ना अच्छी बता नहीं है | पर नियम यदि गला घोंटने पर आमादा हों जाये तो तोड़ ही देना चाहिए | आज के साहित्यकार अपनी बात कहने के लिए दिनकर जी की बात करते है पर वह निराला जी को कैसे भूल जाते है भला |

निराला जी ने साहित्य को छंद से मुक्त कर दिया था | विरोध उनका भी खूब हुआ था | लेकिन वह प्रतिष्ठित साहित्यकार है और सदियों तक रहेंगे | यानि आज जो छन्दमुक्त लिख रहें हैं वह कोई नई विधा नहीं लिख रहें बल्कि अपने पूर्वजों की दिखाई राह पर ही चल रहें हैं |

यानि छन्दमुक्त एक ऐसी विधा भी है साहित्य की जिसमें ज्यादातर लोग अपने भाव व्यक्त करते है | भले ही इस विधा को आज के साहित्यकार लोग मानने से इंकार कर दें | आज छन्दमुक्त लिखने वालों की संख्या अधिक हुई है क्योंकि इसे लिखने में भाव की जरूरत होती है और हमारे ख्याल से भाव सभी के पास है | खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदल लेता है, बिलकुल ऐसा ही देखने को मिल रहा है | फेसबुक पर देखा-देखी कई लोग साहित्य की दुनिया में विचरण करने लगे है बेखौफ होकर | बस उस भाव को एक लय में बांधना आना चाहिए | यदि लय- तालसब सही है और लोगों के दिल में जगह बना पाने में सक्षम है आपके शब्द, तो बिलकुल वह कविता ही है | अपना मानना तो यहीं हैं |

राह में कोई फूल बिछाता है कोई काँटा | हमें चाहिए कि काँटों को फूल समझ अपनी राह चलते चले | उचित और अनुचित का प्रश्न ही नहीं उठता है | जो बात छन्दमुक्त लिखने वाले के लिए उचित है वही बात छंदबद्ध लिखने वालों के लिए अनुचित हो सकती है |


जैसा की लोग गुटबाजी कर शोर कर रहें है कि कूड़ा लिखा जा रहा आजकल | तो भैये कूड़ा यदि लिख भी रहें लोग (स्त्रियाँ जैसा कि कुछ बददिमाग साहित्य के रखवाले कह रहें आजकल ), छप रहें है तो न पढ़े कोई उन्हें | हमें तो लगता हमारा छन्दमुक्त नामक कूड़ा ही रिसाइकिल कर कविगण छंदबद्ध कर लेते है | कोई शक आप सबको ! नहीं न ! हमें भी नहीं है कोई शक| क्योंकि इन तकनीकि के ज्ञाताओं को हमने उसे छन्दबद्ध कर शान से पोस्ट करतें देखा है |
फिर छंदमुक्त भी कूड़ा नहीं होता | जो ऐसा कहते है वह निराला जी को श्रद्धा से याद कर लें जरा |
इन दंभ भरने वाले साहित्यकारों के आगे यदि दिनकर जी की भी पंक्तियाँ हम जैसे लोग रख दें तो वह उनमें भी कई कमियाँ निकाल देंगे | अतः अपना मानना है मस्त हों लिखना चाहिए| जितना जैसा समझ आए | निरंतर सीखिए, सीखने की राह में किसी को बाधक न बनाइए |

बिन भाव के नियमों में बंध साहित्य भले लिख लिया जाता हों | पर दिल छूने वाला साहित्य कभी नहीं कोई लिख सकता | यानि भाव बिन नहीं लिखा जा सकता है लेकिन साहित्यिक नियमों के बिन लिखा जा सकता है |
यानि आप खुद समझ सकते कि क्या ज्यादा जरुरी है |

बस तारतम्य अव्यवस्थित नहीं होना चाहिए किसी भी तरह के लेखन में | यह भी न हो कि आप कहें अपने लिखे हुए को गज़ल या दोहा परन्तु वह उनके नियमों से परे हो | मुक्त हो लिख रहें है तो मुक्त ही कहिये फिर उसे|

अपने लेखन में गुणवत्ता का ध्यान हर व्यक्ति अपने हिसाब से रखता ही है | कभी वह लिखने के लिए लिखता है और कभी भावों को शब्द देने के लिए| जरुरी न कि सभी लिखने वाले साहित्यक दौड़ में शामिल ही है| फिर इतना हाय तौबा क्यों ?

भरसक प्रयास करियें नियम में बन्ध लिख सकें और उसे साहित्यधारा में दृढ़ता पूर्वक जोड़ सकें | पर साहित्यकारों से गुजारिस यह जरुर है कि छन्दमुक्त को अनुचित कह अपमान न करें  किसी छन्दमुक्त लिखने वाले का |

यह तो रही मात्राओं की गिनती वाले साहित्य की बात | अब आते है गद्य साहित्य पर |
गद्य साहित्य पर भी तमाम बंदिशे लगा रखी हैं साहित्यकारों ने | हम जैसे लोग तोड़े तो अपराधी जैसा बर्ताव परन्तु यही कोई प्रतिष्ठित साहित्यकार नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर लिखता है तो एक नया नियम बन जाता है |

कथ्य, कथानक,शैली नामक बला भूत सा पीछे पीछे लगा रहता है | कभी कभी लगता कि सिर पर कोई नियम का भार रखा हों तो कोई साहित्य रचना कैसे हो सकती है | रचना तो तब होती है जब हम मन से जुड़े हो लेखन में | कलम पर हमारे कोई भार न हो न ही दिमाग पर | हैं की नहीं !! लेकिन नियम विरुद्ध होते ही आलोचना होने लगती है|


हमारा तो मन करता है कि काव्य की मुई काव्यकता और नियमों को मुआ ही डाले | और लघुकथा के कालखंड को खंड खंड कर डाले | कहानियों में अपने भाव का उन्माद भर डाले |

आलोचना की परवाह नहीं तो दिल को खुली छुट दे दीजिये और परवाह है तो दिमाग को सतर्क करिए |
उदण्ड बनने की सलाह हरगिस नहीं दे रहें हम पर साहित्य रचनाओं को तकनीकि के जाल में न उलझाइये | उचित अनुचित के डर से बाहर निकल अपने भावों को तारतम्यता में ढ़ाल व्यक्त करते रहिये | ..सविता मिश्रा

सितंबर 30, 2016

~तकनीकि के जाल में फँसता साहित्य~



साहित्य तकनीकि के जाल में फंस रहा है, इससे हम बिलकुल भी सहमत नहीं है | बल्कि तकनिकी माध्यम से तरह तरह के फूलों वाले बगीचें में गुंथा हुआ है साहित्य |
जिस तरह का साहित्य आपको चाहिए , एक क्लिक करते ही उपलब्ध हो जाता है|

आप जितना चाहे, जैसा चाहे, उस तरह का साहित्य पढ़ सकते है | तकनीकीकरण ने तो साहित्य को और भी सुलभ बना दिया हमारे लिए | कहाँ साहित्य के कद्रदान ही साहित्य के बारे में जानते थे परन्तु अब ऐसा नहीं है | हर कोई जानता है अब साहित्य के विषय में | बल्कि हम यह कहें कि अंजान व्यक्ति को भी साहित्य को पढ़ने और लिखने का भी माध्यम मिल रहा है तो अतिश्योक्ति न होगी |

कक्षा में जो विषयांतर पढ़ाया जाता था हम उन्हीं साहित्यकारों को बस जानते थे | जानते क्या मज़बूरी में रट लिया करते थे | यदि तकनीकी से दूर रहने वालों से उन साहित्यकारों की तस्वीरें दिखा, आप पूछिये कौन है ये ? तो हमें पूरी उम्मीद है दस में से शायद ही एक बता पायेगा |

लेकिन जो तकनीकी से कदम से कदम मिला चल रहे है उन्हें ज्यादातर साहित्यकारों के बारे में तकनीकि ने ही जानकारियाँ उपलब्ध कराई है | साहित्य तकनीकि में फंस नहीं रहा बल्कि तकनीकि ने तो साहित्य के लिए पतवार का काम किया है | और शायद नैया पार भी लगा ही रहा है धीरे-धीरे |


हिन्दी साहित्य तो जैसे डूबने के कगार पर था | अंग्रेजी साहित्य की स्थिति तो ठीकठाक है | आधी आबादी तो इससे बहुत दूर हो गई थी| परन्तु अब देखिये यही आधी आबादी घर-गृहस्थी को सम्भालते हुए लेखन में भी जोर आजमाइश कर रही है | यहाँ तक की कई नौकरी पेशा माहिलायें भी घर की जिम्मेदारी के साथ साथ लेखन की ज़िम्मेदारी बखूबी निभा रही है |


तकनीकि न होती तो कहाँ ऐसे समय निकलता कि हम एक दूजे से सीख सकतें | एक के पास समय होता तो दुसरे के पास नहीं | पर तकनीकि ने लाखों- हजारों को एक दूजे से जोड़कर रखा हुआ है | जिससे एक दुसरे को सिखने-सिखाने और पढ़ने-का क्रम भी बदस्तूर जारी है |

तकनीकि के जाल में तो फँसता हुआ हमें कहीं भी नहीं दिख रहा साहित्य | बल्कि उबर रहा है | सब के जरिये सब तक पहुँच रहा है | बड़े बड़े लेखकों को पढ़ने का मौका दे रहा है |

हम यह बेखटक कह सकते है कि तकनीकि के जाल में साहित्य नहीं बल्कि साहित्य के जाल में हम सब फँसते चले जा रहें है |

निराला, दिनकर, अज्ञेय, राहुल सांकृत्यायन, रामचंद्र शुक्ल, नागार्जुन, महादेवी, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राकुमारी चौहान आदि इत्यादि बड़े बड़े साहित्यकार जो सिर्फ विषय के अंतर्गत पढ़े गए थें, उनके सिवा हमें किसी के बारे में कोई जानकारी नहीं थीं | तकनीकि ने तो बहुत सारे साहित्यकारों से हमारा परिचित ही नहीं कराया बल्कि सरलता से उनका लिखा हुआ हमें उपलब्ध भी कराया |


अभिव्यक्ति, अनुभूति, हिन्दी कोष, हिन्दी साहित्य नामक अनेकानेक ऐसे साइट है जिन पर साहित्यदर्शन का लाभ ये नेत्र उठा सकते हैं | और पढ़ कर रोमांचित भी हो सकते है | साहित्य से जुड़े लोगों की फेसबुक वाल और कई ग्रुप भी हमारी साहित्य की तुष्टि करते ही है| हमें उम्मीद है आप तकनीकि माध्यम से साहित्य के जाल में फँस मकड़ी की तरह सुकून पाएंगें |

जिनकी रूचि जैसी हो वह वैसा साहित्य खोजे और पढ़े | यहाँ तक की गृहणियों के लिए भी पकवान से लेकर कढ़ाई -बुनाई तथा बागवानी से लेकर गृह सज्जा का भी साहित्य तकनीकि उपलब्ध करा रहा है| तकनीकि के जाल में प्रवेश कर अभिभूति हुए बिना नहीं रह पाएंगे |
अतः यह कहना सर्वथा अनुचित है कि तकनीकि के जाल में साहित्य फँसता जा रहा | तकनीकि तो अंधकार के जाल में फंसे हुए साहित्य को उबार रहा है | प्रकाशमान कर रहा हैं|..सविता मिश्रा

सितंबर 29, 2016

कुछ मन की ...:) सर्जिकल आपरेशन पर


कल फेसबुक पर ध्रुव भैया की पोस्ट पढ़े थे कि आज विश्व ह्रदय दिवस हैं |
और आज यदि यह विश्व ह्रदय दिवस है |तो ह्रदय बीमारी से ग्रस्त और पस्त तथा स्वस्थ लोग सभी खुश हो जाइए ...अब तक इस दिल पर साँप लोट रहा था | पर आज उस कष्ट से जरा सी मुक्ति मिली पूरी मुक्ति की उम्मीद है |
क्योकि दिल के बीमार जब डाक्टर के पास जाते है तो पूरी तरह से उस बीमारी से मुक्ति चाहते है | वैसे ऐसे ही सर्जिकल आपरेशन चलता रहा तो पूर्ण मुक्ति की सम्भावना बढ़ जाती है | देखिये न नाम भी कितना मैच करता डाक्टरों के कार्य से | बिलकुल सटीक बैठ रहा दिल दिवस पर दिल का सही इलाज यह | अपने भारतीयों का दिल खूब सुकून पाया और पाने की आशा भी जगी |
भारतीय सैनिकों के कटे सिर आज भी आँखों के सामने डोल जाते है | उनकी शहीद होने पर परिवार की पीड़ा असहनीय हो जाती है | दिल मसोस कर रह जाता इंसान क्योकि करने को क्या कर सकता | बोल सकता दुखी हो सकता बस |
आज दिल खुश और आप भी अपना विश्व ह्रदय दिवस पर दिल खुश करिए ..बीमारियों से दूर रहेंगे | फालतू में हर सही कार्यवाही का विरोध कर दिल को तकलीफ में डाल क्यों दुखी करना | दिली बीमारी से बचने का सटीक उपाय | जो कष्ट पहुँचायें उसका सफाया |
आज जिनके हृदय पर अब तक साँप लोट रहें थे वह मुक्ति पाए पर बहुतों के दिल पर लोटने लगे होंगे आज |
एक काम से एक को ख़ुशी तो दुसरे को दुःख यह तो रिवाज ही है| कोई न आप सब भी अपना अपना दिली इलाज खोज ही लीजिए | ...जय हिन्द जय भारत

सितंबर 10, 2016

~~आँसू बहा रही हूँ~~

जख्म जो हरे हैं
उन पर मिट्टी डाल रही हूँ
पुराने जख्मों को याद कर
आँसू बहा रही हूँ |
नये जख्म अभी अभी हुए हैं
अतः दर्द थोड़ा कम है
जब थोड़ा समय की परत पड़ेगी
कोई ऐसी घटना घटेगी
तब यही जख्म पुनः याद आयेंगे
तब हम इसी जख्म पर
फिर से आँसू बहायेंगे |
अभी जो आँसू निकल रहे हैं
वह महज आँखों से बह रहे हैं
कुछ समय पश्चात् इसी जख्म पर
दिल से अश्रु निकलेंगे
उनमें वेदना, बेचैनी, अकुलाहट होगी
फिर तो बरबस ही अश्रु छलक जायेंगे |
अभी तो बस लोगो की सहानुभूति का असर है
जो दिल नहीं मेरी आँखों से बह रहा है | ..........सविता मिश्रा

सितंबर 09, 2016

~आत्मा जाग रही बस इंसानियत सो रही ~ (कुछ मन की)


फेसबुक पर घूमते-घूमते खूब हो हल्ला सुने तस्वीरें भी देखी दाना मांझी की | पर न जाने क्यों अपनी सम्वेदना न जगी| शायद हम संवेदनहीन हो गए है, या लोगों की सम्वेदनशीलता पर सवाल खड़ा करना चाहते है | दैनिक जागरण में एक लेख भी पढ़े | परन्तु सोयी रही अपनी सम्वेदनशीलता कहीं कोने में| क्या करें! हर रोज कुछ न कुछ ऐसा देखने की आदत पड़ गयी है |

आज न जाने कैसे किसकी वाल पर एक वीडियो भी दिखी दाना मांझी की | वीडियो देख कई सवाल उठे मन में| सब प्रायोजित सा लगा| आप भी ध्यान से वीडियो देखेंगे तो पाएंगे कि जैसे कहा गया हो, 'हाँ ओके टेक टू वीडियो!' वो जैसे फिल्म बनाने वाले करते हैं | और मांझी ने उठा ली हो फिर से अपनी बीबी की लाश अपने कन्धो पे | क्या fb पर लाइक कमेन्ट के हम इतने ज्यादा भूखे हो गए कि हमें इंसानियत की रत्ती भर भी भूख न रहीं |

मिडिया जैसे किसी घटना को सिर्फ टीआरपी के चक्कर में बढ़ा चढ़ा दिखाता है? वैसे ही हम भी लाइक के चक्कर में घिर गए है ? क्या मार्क जुकरबर्ग ने हमारी सम्वेदनशीलता को छीन लिया है ? या यहाँ भी हम एक दूजे से ज्यादा सम्वेदनशील होने के चक्कर में माझी के चित्र को लेने वाले को मशहुर कर दिए है ? क्या ऐसे माझियों की कमी है अपने देश में ? इस खबर के दुसरे-तीसरे दिन ही क्या एक और दर्दनाक चीख न सुनी किसी ने ? एक लाश की खबर, जिसके कमर से शरीर के दो टुकड़े कर दिए गए ! सवाल कई उठते हैं ! कई चीजों को देखकर पर जबाब में शून्य ही हाथ लगता अपने |

गिद्ध को बालक पर झपटते हुए जिसने तस्वीरें ली थी उनकी आत्मा ने तो उन्हें धित्कार दिया था | उन्होंने आत्महत्या कर ली थी | हम यह बिलकुल नहीं कह रहे कि यह चित्र और वीडियो लेने वाले केविन कार्टर बने | लेकिन इतनी गुजारिज जरुर है कि कैमरे का दुरूपयोग यदि करें भी तो इंसानियत का भी ख्याल रखे | हो सकता है उन्होंने यह वीडियो बनाने के बाद इंसानियत दिखाई भी हो! पर समाचारों से तो ऐसा प्रतीत होता हुआ न दिखा | क्योकि समाचार तो यही कहता कि माझी किसी प्राइवेट गाड़ी से अपने गाँव नहीं गए | बल्कि सरकारी एम्बुलेंस 10 किलोमीटर बाद मुहैया कराई गयी | काश यह पहले ही कर देते तो इतनी छीछालेदर न होती | लेकिन इसकी भी एक सच्चाई है , शायद वह किसी को न दिखी! कभी भी सरकारी एम्बुलेंस लाश ढ़ोने के लिए प्रयोग नहीं की जाती| उसके लिए एक अलग गाड़ी होती है जिसे शववाहन कहते|

फेसबुक पर भी कईयों की सम्वेदनाएँ उफ़ान मार रहीं है | क्या हम जिन्दा लाशों को जब सड़क पर घिसटता देखते है तो हमारी सम्वेदना जागती है | नहीं न ! हम नाक बंद कर आगे बढ़ जाते हैं| पुलिस को फोन घुमाने की भी जहमत न उठाते | न ही और कोई ऐसी व्योस्था करते जिससे उस लाश को हटाया जा सकें |

अभी कुछ दिन पहले रविवार को हम आगरा-दिल्ली एक्सप्रेस-वे से गुजर रहें थे; सड़क पर किसी कुत्ते के बच्चे की लाश सी दिखी | स्पीड में होने के वजह से साफ़ साफ़ न देख पाए | बेटे से कहें कि "क्या सफाई नहीं की जाती सड़को की|
क्यों क्या हुआ उसने कहा तो बोले देखो सड़क पर लाश पड़ी किसी जानवर की , अब रात होते ही न जाने कितनी गाड़ियाँ इस पर से गुजर जाएँगी | टोल पर पहुँचने पर लगा बहुत भीड़ चल रही सड़क पर | शायद रविवार का दिन होने से सब मथुरा की सैर करने निकले होंगे | भगवान के घर जा रहें उनके प्रति अपनी सम्वेदना जगाने या फिर अपने प्रति | पर एक जीव जो निर्जीव सा हो गया है उसके प्रति हमारी सम्वेदना सोयी पड़ी है|

बेटे ने कहा नम्बर होता है कम्प्लेन करने का , हमने कहा मिलाओ नम्बर कम्प्लेन कर दो | झट वह बोला नम्बर न पता | क्या नेताओ की प्रचार होर्डिंग के बजाय ऐसे सहायता या कम्प्लेन करने के लिए जगह जगह बड़े बड़े होर्डिंग लगा उन सबके मोबाईल नम्बर न देने चाहिए? जिससे यदि किसी को ऐसी अव्योस्था दिखाई पड़े या समस्या हो तो फोन कर सूचित तो कर सकें | प्रचार के तो होर्डिंग थे लगे | सवाल कई उठते कई चीजों को देखकर पर जबाब में शून्य ही हाथ लगता |

खैर कहाँ भटक गए हम | यह मन भी न जाने कितने सवालों से भरा है एक टॉपिक पर टिकता ही न !
घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही रस्ते में न जाने कितने सम्वेदना को जगाते दृश्य मिल जाते है| पर हमें अपनी मंजिल की ओर दौड़ लगानी होती अतः हम उस सम्वेदना को थपकी देकर सुला देते है | शायद मन कहता सो जा बेटा वरना खामाखां परेशानियों में उलझ जायेगा | और अपनी मंजिल पर लेट जाएगा तो वह तुझसे छुट जाएगी | आत्मा सोयी पड़ी है अतः हमें कचोटती नहीं है वह भी | क्यों ऐसा ही होता न !

यदि सही मायने में सम्वेदना जागी है किसी के मन में तो, घर में, घर से बाहर देखिए कई ऐसे अवसर है जो इंसानियत को ललकारते मिलेंगे | इंसानियत को जगा इन्सान की मदद कीजिए {मतलब प्राणीमात्र से}| वैसे कहना आसान है करना मुश्किल क्योकि इस राह में बड़े खतरे भी है और अपनी विवशता भी | फिर भी जिन्दगी के मोड़ पर किसी एक भी मदद कर पाए तो बड़ी बात होगी मेरे लिए भी और आप सबसे भी यही कहना|
हमें तो अपने घर के सामने खड़ा कनेर का पौधा रोज हमारे सम्वेदनहीन होने का प्रमाण देता है| और हम मेयर को कोसते हुए रोज अपनी सम्वेदना प्रकट करती रहती| सविता मिश्रा

सितंबर 05, 2016

शिक्षक दिवस और गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई|..:) :)

फ्रेंडशिप डे और नागपंचमी इस साल एक दिन थी | पिछले साल जन्माष्टमी और टीचर्स डे एक दिन |
इस बार गणेश चतुर्थी और टीचर्स डे एक साथ है | कुछ तो इशारा है |

गणेश भगवान बड़े ज्ञानी थे पर शिक्षक ..? कुकुरमुत्तो से उगते स्कूल-कॉलेज और अंधी गली से विचरण करते आते शिक्षक | सरकारी मेवा खा रहे, प्राइवेट मेवा पा नहीं रहे | सब का अपना अपना रोना |


कुम्हार गीली मिटटी को हाथ से सहारा देकर ठोक कर दिल से,प्यार से,स्नेह से खूबसूरत मूर्ति बना देता है.....बहुत खोजा दिल से पर ऐसे किसी शिक्षक का नाम अपने दिमाक में न आया| खैर आज डा.राधाकृष्णन जी का जन्मदिवस हैं ... | जो शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता हैं | ऐसे बहुत से शिक्षक होंगे जो अपना प्रोफेशन समझ नहीं बल्कि दिल से बच्चों को भविष्य के लिए तैयार करतें होगें|

जब बच्चे कुछ बन निकल जाए तो माँ-बाप के साथ शिक्षक भी कह पड़ता मेरा पढ़ाया छात्र , कितना पढ़ाया यह तो छात्र ही बखूबी जानता | पढ़ाते तो माता- पिता दोहरी मार क्यों झेलते (ट्यूशन की)|
लेकिन जब बच्चा गलत राह पर चलता पकड़ा जाए तो माँ-बाप की तो मज़बूरी पर क्या कोई शिक्षक तब आके खड़ा हो कह पाता कि हमने पढ़ाया | नहीं ,कदापि नहीं कहता | उससे उसकी प्रतिष्ठा धूमिल होती हैं | अपनी प्रतिष्ठा अपना स्वार्थ हर किसी को दीखता क्या शिक्षक और क्या छात्र |
शिक्षकों से अपील नींव का पत्थर न बनना चाहे न सही पर लोना लगी ईंट न बनियें| शिष्यों से भी गुजारिस है एकलव्य न बन पाए न सही पर दुर्योधन और दुश्सासन जैसे शिष्य न बने |

न शिक्षक गुरु योग्य रह गए न छात्र शिष्य योग्य | अब तो दोनों एक दूजे से सामंजस्य बैठा के चलते हैं |
ज्यादा बोलना अच्छा न बस आज इतना ही| आखिर शिक्षा का प्रसाद तो हमने भी ग्रहण किया है अपने शिक्षकों से और यहाँ fb पर उपस्थित ज्ञानियों से | मात-पिता,भाई-बन्धुओं से |सखियों से यहाँ तक कि नन्हें-मुन्हें बच्चों भी |
जीवन के सफ़र में जो भी शिक्षा देने वाला मिले शिष्य बन शिक्षा ग्रहण कर दिल से शुक्रिया करते चलें |
आजकल  द्रोनाचार्यो जैसे विद्वान् शिक्षकों की कमी भले हो परन्तु हैं ही नहीं ऐसा नहीं है | और न ही एकलव्य एवं  अर्जुन जैसे शिष्यों का अकाल है  | बस रमने और गुनने की बात है | #सविता मिश्रा
शिक्षक तुम में रम गया तो कोयला से हीरा बना देंगा और शिष्य रम गया तो निर्बुद्धि का होकर भी बुद्धिमान बन जायेगा |
अतः आभार सहित सभी आदर्श शिक्षकों को नमन| आप सभी को शिक्षक दिवस और गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई|..:) :)

अगस्त 15, 2016

~कैसी आजादी ~

लगभग चौदह साल की बाली उम्र पार हो चुके आजकल के बच्चों को अपने माँ -बाप से आजादी चाहिए ! माँ-बाप्प को अपने माँ-बाप से आजादी चाहिए ! और उनके माँ-बाप को इस जिन्दगी के बंधन से आजादी चाहिए !

सरकारी नौकर को अपने अधिकारीयों के खिलाफ खुलकर बोलने की आजादी चाहिए तो अधिकारीयों को अधिनस्तों पर मनमानी और नेताओं के हस्तक्षेप से आजादी चाहिए |
नेताओं को मनमाने ढंग से काम करने और धनपशु बनने की आजादी चाहिए तो वोटर को अपने नेताओं को कुछ भी भला बुरा बोलने की आजादी चाहिए |

पत्रकारों को खुरपैची करने की आजादी चाहिए तो सम्पादक को उसकी पूंछ पकड़ मुरेड़े रहने की आजादी चाहिए |
पुलिसकर्मियों को जनता पर तानाशाही  करने की आजादी चाहिए तो जनता को उसे हर वक्त गालियाँ देने की आजादी चाहिए |

कवि-लेखकों को मनमाने ढंग से लिखने की आजादी चाहिए तो आलोचकों को येन केन प्रकारेण उनकी टांग खींचते रहने की आजादी चाहिए |
वकीलों को झूठ-सांच को अपने हिसाब से परोसने की आजादी चाहिए तो जजों को अपनी कलम की ताकत दिखाने की आजादी चाहिए |
शिक्षको को छुट्टियों पर कुंडली मारने की आजादी चाहिए तो शिष्यों को शिक्षकों से ही आजादी चाहिए |

लड़कियों को भय मुक्त माहौल में पढ़ने-लिखने, रहने की आजादी चाहिए तो लड़को को एक अदद नौकरी के जुगाड़ होने के लिए आरक्षण से आजादी चाहिए |
सत्ताच्युत पार्टी को सांप्रदायिक दंगे कराते रहने की आजादी चाहिए तो सत्ताधारी को वोटरों को लालीपाप चटाते रहने की आजादी चाहिए |

कुल मिला के सब को अपने अपने मतलब की आजादी चाहिए ही चाहिए | पर हम यह सोच सोच परेशान है कि जो गोरे अंग्रेजो से भारत की आजादी छीन काले भारतीयों के नाम लिख गुमनाम हो गए शहीद किसके लिए आजादी दिला गए; वो उनके मतलब की थी ? मतलब साफ़ है वो मतलबी न थे जुनूनी थे अपने खून से भारतीय धरती पर वन्देमातरम लिख गए |

उनकी रूहें संतुष्ट रहें इसके लिए जरुरी है कम से कम तिरंगे का तो कद्र करें हम सब |
अपनी आजादी को समझते हुए दुसरे की आजादी का भी ख्याल रखिए, मान रखिए |

संस्कारो की नींव कहाँ खोखली हो रही उसके लिए दो लाइनें ...:)
चार लड्डू, फिर दो, फिर आइसक्रीम,अब चाँकलेट हो गयी,
अमर शहीदों की दी हुई आजादी तो न जाने किधर खो गयी |


डरते थे गद्दारों से कभी
अब अपनों से डरते है
यूँ ही आजादी का जश्न
हम हर वर्ष करते है |
||सविता मिश्रा ||



सभी देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई ....भले ही हम पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है फिर भी बहुत बहुत शुभकामनायें ................

~हर दिल में हो देश के प्रति प्यार भरा ~~

देश की तरफ आँख उठा कर देखे दुश्मन जो कोई ,
जा पड़े आँख में हम शोला बन उसकी शामत आई।
अब तो हो चुके शहीद भारत पर क्या करें हम में से कोई
जो जिन्दा है आज उनकी तो जैसे देशभक्ति ही है खोई |

भरा है प्यार का दहकता अंगार दिल में हमारे ,

स्वदेश के प्रति सम्मान भरा अधिकार दिल में हमारे |

देश के लिए मर मिटने का जूनून था कभी दिल में हमारे ,
आज स्वप्रेम के मोह में देशप्रेम हो गया है एक किनारे |

आज देश की देख यह हालत गर्व के बजाय अफ़सोस है ,
जिसके लिए मर मिटे हम भूलकर हमें ही वह मदहोश है |

जिस देश के लिए हँसते हँसते खाई हमने अपने सीने पर गोलियां,
उसी मेरे प्यारे देश को बेच रही हैं यहाँ अराजक तत्वों की टोलियां|

खोखला कर स्वदेश को अपना ही घर माल से भर रहें हैं ये नेता
क्यों देश-भक्ति के बजाय भर गयी हैं इनमें इतनी अधिक लोलुपता |

चूमकर झूल गए थे फांसी के फंदे पर कुछ भी न निकली बोलियाँ,
उदास बहुत ये मन बढ़ता हुआ देख देश में गरीबों की खोलियां|

प्यार के बजाय दिल में धधक रही है अब ज्वाला समझो
कहीं ऐसा ना हो कि कब्र से उठकर जला दे हम तुमको | सविता मिश्रा


सभी देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई ....भले ही हम पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है फिर भी बहुत बहुत शुभकामनायें ................|:) :)




जुलाई 20, 2016

जाने दे-

रुक थोड़ा सा मुझको संभल जाने दे
मुझमें भी जरा सी तो समझ आने दे
मैं भी कलम पकड़ कुछ लिख सकूँ
मुझे इतनी कलमकारी तो सीख जाने दे


हुनर सिखने में लगेगी तनिक देर अभी
गजल के 
भी कुछ नियम सीख जाने दे

प्रयास हैं बहुत पर थोड़ा वक्त है अभी
बुद्धि में हमारी भी  पैठ ise बनाने दे
कलम अपनी जब चल  पड़ी idhr को
तो उसे भी कुछ गजल कह 
ही जाने दे|...सविता.....

जुलाई 16, 2016

~बदलते संस्कार~

इस कविता के साथ हम उपस्थित थे हिंदी भवन में | १७/9/२०१६ को १०० कदम के साँझा संग्रह के विमोचन में ..:)


परदादा कहते थे कि
राह चलते व्यक्ति को
बुलाते थे घर अपने
भोजन कराते थे प्यार से
व्यक्ति थका-हारा होता था
दो-चार दिन ठहर कर
फिर जाता था,
जाते जाते ढेरों दुआएं दे जाता था |

फिर दादा कहते थे कि
राह चलता व्यक्ति थक कर
बैठ जाता था पगडंडी पर
हम उसे घर ले आते थे
प्यार से भोजन-पानी देते
एकाध दिन अपनी थकान
मिटाता था रुक कर
फिर दुआएं देकर
चला जाता था |

पापा कहते थे कि
राह चलते व्यक्ति मिलता था
थोड़ी पहचान होती थी और
घर में बुला कर बैठाते थे
प्यार से चाय-पानी कराते थे
दो-चार घंटे आराम कर
दुआ देकर हमको
चला जाता था अपने गंतव्य को |

अब हम कहतें हैं बच्चों से
राह चलता कोई मिले
बिना पहचान वाला हो तो
बात मत करना उससे
कुछ दे तो कभी मत लेना
और घर तो बिलकुल भी
मत बुलाना उसे
रास्ते में आते-जाते लोग
पता नहीं अच्छे है या बुरे
अतः बेटा घर का
रास्ता भी ना दिखाना
रात को आकर लूट लेगा
अतः दूरी बनाए रखना |

पहचान का हो तो भी
कोशिश करना
घर ना ले आना पड़े
यदि लाना पड़े तो फिर
प्यार से बैठाना
चाय-पानी कराना
और जल्दी से जल्दी
विदा कर देना उसे
दुआ तो दूर यदि
बद्दुआएं न दे तो शुक्र मनाना |

बेटा बड़ा हो गया है अब
वह राह चलते व्यक्ति से
नजरें भी नहीं मिलाता
अपने रिश्तेंदार भी मिलें तो
नजरें चुरा लेता है
देखा ही नहीं उसने ऐसा
आभास कराता है
घर आएं मेहमान को भी
चाय-नाश्ता तो दूर रहा
पानी भी नहीं पूछता है
कोशिश रहती है उसकी
बाहर से ही विदा हो जाये |

गलती शायद उसकी नहीं है
हमारी ही है
हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलते गयें
अपनी मानवता को ही
शनैः शनैः दफन करते गयें
भावनाएं अब मर गयी हैं
हम मशीन हो गयें हैं
दूसरों की परवाह नहीं
आगे बढ़ने की होड़ में
जानवर से भी गये-गुजरे हो गयें हैं
दुआएं लोगों की छोड़िए
बद्दुआएँ लेने लग गयें हैं | +सविता मिश्रा +


जुलाई 12, 2016

~प्रतिरोध की संस्कृति~

प्रतिरोध यानि विरोध की संस्कृति| जब से जीव-मात्र ने जीवन पाया है, यह प्रवृत्ति अपने आप ही जन्मानुगत ही उसमे पायी जाती है| इंसान क्या जानवर भी विरोध की संस्कृति से बखूबी परिचित है|
खैर हम तो इंसानों की बस बात करेंगे | प्रतिरोध करना इंसानो का मुलभूत स्वभाव है |
बच्चा जन्म लेते ही प्रतिरोध करना सीख जाता है| उसके मन मुताबिक चीज न हो तो वह रोकर अपना प्रतिरोध दर्ज कराता है | जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वह क्रोध कर ,रोकर ,चीख-चिल्लाकर प्रतिरोध करता है |
प्रतिरोध ऐसी ताकत है जिससे हम सामने वाले को उसकी गलती का अहसास दिला सकते है | पर इसका उग्र रूप बहुत ही घातक होता है | उग्रता में हम अपनी सीमा भूल जाते है | सीमा का उलंघन होते ही हमारा दिमाक भी प्रतिकार करता है, पर हम क्रोध में अंधे हो चुके होते है | भावहीन हो जातें हैं, जिससे दिमाक का वह प्रतिकार हम महसूस ही नहीं पाते|
शान्तिमय प्रतिरोध में बहुत ताकत है | पर यह एक होम्योपैथी इलाज की तरह है ,जो समय लेता है, सामने वाले को उसकी गलती का अहसास कराने के लिए | पर यह समय ही तो हैं जो हममें से किसी के पास होता कहाँ है | हमारी जल्दी सुनी जाये अतः हम आक्रामक प्रतिरोध की संस्कृति अपनाते है, जो एलोपैथी जैसा काम करती है| पर लोगों की नजर में हमें  उद्दण्ड भी बना देती है |
आजकल आदमी की सहनशक्ति ख़त्म सी हो रही है| अतः वह आक्रामक हो प्रतिकार करता है | हर गली -मोहल्ले में ,हर बात पर | उसका यह आक्रामक प्रतिकार, प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतिकूल हो जाता है |जिससे वह असर नहीं होता जो होना चाहिए |
सड़क पर प्रतिरोध करते लोग आम जन से भिड़ते ही रहते है यह आम बात है | सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा कर प्रतिरोध दर्ज करना, कौन सी बहादुरी का काम है | संसद घेरना ,चीखना -चिल्लाना ,आगजनी , मार-पीट करना ये सब तो स्वस्थ प्रतिरोध की संस्कृति नहीं है,फिर भी ज्यादातर लोग ऐसे ही कर रहें हैं |
'संयत रहिये तो ही स्वस्थ रहेंगे ' प्रतिरोध करने वालों को यह युक्ति अपनानी चाहिए |
पांच -छः साल से ये वेलेंटाइन डे क्यों इतना महत्व पा रहा है, क्योंकि हम इसका जबरदस्त विरोध कर रहें है| हम इसे दबाने में प्रतिरोध कर रहें तो इसके समर्थक इसे उभारने में प्रतिकार | दोनों ही प्रतिकार अमर्यादित है, जिसके कारण फायदा के बजाय नुकसान हो रहा हैं | दोनों ही तरफ से प्रतिरोध की संस्कृति अपनाने के कारण आज सभी बच्चे -बूढ़े नर- नारी के जुबान पर यह डे हैं | वर्ना कौन जानता था कि ये किस चिड़िया का नाम है | अमर्यादित डे को हर युवा अपनाकर भारतीय संस्कृति को कुटिलता से कुचल रहा है| इसका प्रतिरोध करना हम भारतीयों की ही जिम्मेदारी है | पर सकारात्मक रूप से, वर्ना यह लाइलाज बीमारी की तरह फैलती जाएगी | फिर भविष्य को देने के लिय हमारे पास अपनी संस्कृति बचेगी ही नहीं |
प्रतिरोध की संस्कृति जो हमारी ताकत है ,उसे हमारी कमजोरी बनाकर फ़िल्मवाले भी इस्तेमाल कर रहे है, और हम अन्जान होने के कारण इस्तेमाल हो रहें है | कोई न कोई विवादित क्षण मूवी में डालो, जनता प्रतिकार कर अपने आप प्रचार कर देंगी| उनकी इस सोच पर हमें सोचना होगा कहीं हम महज कठपुतली तो नहीं बन रहें |
भीड़ में प्रतिरोध करते किसी भी व्यक्ति से यदि सवाल किया जायें कि आप प्रतिरोध किस चीज का कर रहें है? तो शायद ही २० में से आठ ही यह बता पाएँ कि मूल कारण क्या है, जिसका हम प्रतिरोध कर रहें हैं| बस देखा-देखी पाप ,देखा-देखी पुण्य की राह पर चल पड़ते है अंधे -बहरे-गूंगे बनकर | जो अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिरोध की संस्कृति को क्षति पहुंचाता है |
अब इसका मतलब यह तो कदापि नहीं कि आपके घर के सामने कोई लाकर ठीक दरवाज़े पर गाड़ी खड़ी कर दें, पर आप दबते-दबाते किसी तरह निकल जाये प्रतिकार करें ही न | या आपके दरवाजे पर कोई पान थूंक जाये, पर आप मूक दर्शक बने रहें | प्रतिकार करना हमेशा मुलभूत अधिकार है | बस उसका दायरा कहाँ, कब शुरू होता है और कहाँ, कैसे ख़त्म यह समझने की बात है |
आज की युवा पीढ़ी ना जाने किस ओर भाग रहीं है | रोकने-टोंकने पर इसी ' प्रतिरोध ' को हथियार बना लेती है | न जाने कैसी आजादी चाहिए ? कोई उनसे कहें तो कि बेटा आजाद तो तुम जन्म से पहले भी न थे, जन्म के बाद भी नहीं हो | कोख में माँ ने तुम्हारी एक सीमा तय कर रखी थी और शैशवावस्था में भी | हाँ प्रतिकार होता था पर वो प्रतिकार सही दिशा में है या नहीं यह निश्चित माँ-बाप ही करते थे |
आज वैश्विक व्यवसायिक हवा में झूलते जिस झूले में बैठ लोग, आसमान का सफ़र करना अपना अधिकार बता रहें है| वह झूला दरअसल एक कमजोर डोरी से बना है, जो उनके थोड़ा सा ऊपर जाते ही टूट जाता है |और वो फिर इसी धरातल पर आ गिरते है, जो उनकी अपनी भारतीय संस्कृति है | आज जो भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देख प्रतिरोध कर रहे है , कल इसी की गोद में आराम करना पसंद करेंगे| जैसे बच्चा कितना भी उछल-कूद, शरारत कर ले पर अंततः माँ की गोद में सर रखकर ही सुकून पाता है | क्लब में थिरकना ,शराब -अफ़ीम-गांजा का सेवन करना, बेहूदे कपड़े पहनना ये सब अपनाने के लिए सभी छटपटाते है| हर चमकती हुई चीज को सोना समझ युवा द्रिगभ्रमित हो अपना लेता है, पर कुछ समय पश्चात् मोह भंग होतें ही  इनसे बाहर आना चाहतें है| अँधेरी गुफा में जाने का रास्ता तो बहुत सरल हैं परन्तु निकलने का उतना ही कठिन|
हरें -भरें फल -फूल से लदें राजनीतिक वृक्ष पर भी लोग प्रतिरोध कर- कर के चढ़े जा रहे है |  चढ़ते ही संयमित प्रतिरोध किस चिड़िया का नाम है भूल,असंयमित हो मशगूल हो जातें  हैं, खूबसूरत फल-फूल अपनी झोली में डालने में |
गलती उनकी कहाँ ,गलती तो हमारी है| जो हर उल्टा-सीधा ढंग से प्रतिरोध करने वाले को हम युग पुरुष समझते है| क्योकि हमारे अंतस के कोने में बैठे प्रतिरोध के राक्षस को वह आवाज दे रहा है | विरोध का राक्षस तो अपने भी अंतस में तांडव कर रहा है, पर हमें  अपनी सीमा पता है उस सीमा से बाहर निकल उदण्ड रूप से प्रतिरोध करना हमारी मर्यादा के खिलाफ है |

अब तो प्रतिरोध भी शायद प्रतिकार करने लागा है कि..
मुझे वीभत्स मत बनाओं
संयत रूप में ढ़ल जाओं
बदल डरावना रूप अपना
भारतीयता को तुम अपनावों|
एक गीला कपड़ा आग के पास भी लाओं, तो वो तब तक नहीं जलता जब तक गीला रहता है | ज्यादा समय सानिध्य में रखने पर सूखते ही झट आग पकड़ लेता है | उस समय पानी डालकर बुझाना हमारी जिम्मेदारी हैं | आज यदि हम इस ज़िम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से नहीं निभाते तो कल सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाएगा | फिर तो आग के ढेर पर बैठकर रोने के सिवा कुछ नहीं मिलेगा |
प्रतिरोध की संस्कृति के जरिये हमें भारतीय संस्कृति को बचाने का प्रयास करना चाहिये | हाँ एक दायरे में हो यह नहीं की एक मर्यादा बनाये रखने के लिए, दूसरी मर्यादा तोड़ी जायें |
' प्रतिरोध की संस्कृति ' को संस्कृति के ही रूप में अपनायें , तो वह दिन दूर नहीं जब सभी इस संस्कृति के पक्षधर होंगे | आखिर मर्यादित रहना हमारी संस्कृति है और मर्यादा में रहकर विरोध करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार |
चीख-चीख कर, कर रहा जो तू प्रतिकार
उदण्ड मवाली कह, आवाज़ दबा देंगी सरकार
अत्याचार एवं वैश्विकता का, मर्यादा में रह कर विरोध
कन्धें से कन्धा मिला तब, चलने वालों की होगीं भरमार | सविता मिश्रा

जुलाई 08, 2016

!!!बबूल का कांटा!!!

समझे तो सही! नहीं समझेंगे तो सुनेंगे!
बस एक सलाह - माने तो 
ठीक न माने तो भी खास फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन बस आप फ्रेंड लिस्ट से विदा हो जाएंगे। हमारी ही नहीं किसी भी स्त्री की फ्रेंड लिस्ट से। बबूल का कांटा किसे सुहायेगा भला, वैसे भी हम स्त्रियां कोमल स्वभाव की स्वामिनी तो हम सबको तो नहीं ही सुहायेगा। अतः बबूल का कांटा न बनिए!

हे फेशबुक वासियों! आप लोग जैसे दूसरे की फोटो कॉपी करके, मैंसेज में भेजते हैं या उसका दुरूपयोग करते हैैं, वैसे ही आपके माँ -बहन क़ी फोटो कोई  और ऐरा-गैरा कॉपी करके आपको या किसी और के मैसेज बॉक्स में या 
किसी की वाल पर या अपनी ही वाल पर चिपकाए तो कैसा लगेगा! और कुछ उटपटांग से लिख भी दे, तो फिर..! कैसा लगेंगा? शीशे के घरों में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते भई!
मेहरबानी करके दूसरे की माँ-बहन की भी इज्जत करियें ! यदि अपनों की चाह रहे हैं तो। आप दूसरे के लिए यदि कुँआ खोद रहे हैं तो खाई आपके लिए भी कहीं न कहीं खुद ही रही होगी!!
ये भी तो एक प्रकार का क्राइम है...।..वकील बहुत हैं यहाँ फेसबुक पे..पर धारा कौन सी लागू होगी, शायद न बताएँ।   😊 क्योंकि पढ़ेंगे आकर या नहीं, कोई गारण्टी नहीं|अब  सब पोस्ट सबको दिखे ही, जरूरी तो नहीं।      😊😊
हम सब महिलाएँ तो आप कितने भी स्मार्ट हों, अच्छे से ड्रेसअप हों, या फिर और कोई और कारण हो! आपकी कोई भी तस्वीर शेयर नहीं करते हैं...। न ही मैंसेज बॉक्स में जाकर आपकी ही तस्वीर आपको भेजते हैं...!! आपकी तस्वीर पर ही कमेंट करके आते हैं। पर आपको शायद शर्म आती है महिलाओं की फोटो पर बोलने में। फोटो तो फोटो, पोस्ट पर भी बोलने में कातरते हैं, है न ?? पोस्ट को देखकर भी अनदेखा करना और मैसेज में जाकर बोलना 'बहुत अच्छा लिखती हैं आप....' क्या मतलब है इसका?हमें नहीं पता क्या! हम कितनी स्याही खराब करते हैं और कितने पेपर! हो सकें तो पोस्ट पर बोलें , राय दें, तो समझ आये! 
दौड़कर गुपचुप बॉक्स में मत पहुँचिए। औरतों की पोस्ट पर दो शब्द बोलने से आपकी इज्ज़त नहीं कम हो जाएगी!

मायावी फेेेसबुुुक की भूल-भुल्लया में
बड़ी मुश्किल से भरोसा करके आप सब को जोड़ने की हिम्मत जुटाते हैं हम, कृपया उस भरोसे को कायम रखिए। वैसे जब हम जैसे सामान्य लोगों के मैसेज में आप एक्का दुक्की ऐसे सिरफिरे टपक पड़ते हो, तो वे लोग कितना परेशान होते होंगे जो व्यूटी क्वीन हैं!! उन्हें तो आप सब जीने ही 
नहीं देंते होंगे!
जियो और जीनो दो भई! हम सब भी हाड़- मांस के पुतले हैैं आप सबकी ही तरह। आपके अहम् को ठेस पहुँचती है तो क्या अपना आत्मसम्मान नहीं है क्या कोई!
तस्वीर हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं । इस पहचान को कायम रखने के लिए तस्वीर लगाते हैं। आप सब से तारीफ पाने के लिए नहीं...। और यदि तारीफ पाना भी चाहेें तो इसमें बुरा भी क्या है! हम तस्वीर बदलें तो बुरा हुआ। आप बदलो तो भला! ये कैसा दोगलापन! जैसे कलम हमारे स्वभाव और लिखने की क्षमता की परिचायक ! उसी तरह तस्वीर  हमारे व्यक्तित्व की पहचान है। इसके जरिये हम अपनी पहचान कायम रखना चाहते हैं ! कोई लिखने वाला कहीं मिले तो पहचान सकें। हम भी कई को तस्वीर से ही पहचानते हैं, नाम तो एक से हो सकते न, पर तस्वीरें तो एक सी नहीं हो सकती।
तस्वीर पर यदि आप सब खूबसूरत कहते हैंं भी तो यक़ीन मानिये बहुत आड फील होता है! समय के साथ अब आदत पड़ गयी है। उ क्या है न कि हम स्त्रियाँ तारीफ अवश्य सुनना चाहती हैं पर अपने परिवार वालों से दूसरों  से सुनने में बड़ा अटपटा सा लगता है। यहाँ भले सुन ले रहे हैं ! क्योोंकि किकिकिकिकि धन्यवाद भी ज्ञापित कर रहें ! पर सामने कोई बोले तो बोलती बंद रहती !!!
वैसे भी आप सबने ध्यान दिया हो तो, हमारी तस्वीर पर सामान्य कमेंट के अलावा महत्वपूर्ण रूप से आशीष ही होता हैं बड़ो का!!! प्लीज मेहरबानी होगी आप सभी क़ी कि ऐसी हरकत न करें जिससे हम स्त्रियोँ को परेशानी हो!!!ये मत समझिये कि आप में कई हमारे लिए बबूल का कांटा बनते रहेंगे और हम स्त्रियाँ उस कांटे का दंश झेलते रहेंगी | बदले में हम भी काँटा बन सकतें, पर हम नीचे गिर कर, नीचे गिरें हुए को ऊपर उठाने में कोई रूचि न रखते |
Fb पर लेखन उद्देश्य से जुड़े है हम वहीं  करने दीजिए शांति से!!!!!खुद सभ्यता से जीये और हमें भी चैन से जीने दें!!!हम्बल रिकवेस्ट है आप सब ऐसों -वैसों से !!!!
कई कहते औरतों  को तस्वीर ही नहीं डालनी चाहिए!!!क्यों भई गलत करो आप और भुगते हम!!!आप में तो यह भी सोचतें  कि औरतों को घर से बाहर ही न निकलना चाहिए....नियत हो आपकी खोटी और औरतें  रहें कैद में ये कैसा न्याय!!!!न्याय पर पट्टी अवश्य बन्धी , जानता समझता वह भी है!!!!

सुबह-सुबह मेसेज में फिर एक बार अपनी तस्वीर देख सनक गया दिमाग.....|देखिए आप में कुछ के कारण कितना समय बर्बाद हुआ हमारा खामख़ाह!!!!क्योंकि मालूम है आप सब के सर पर जूं भी न रेंगेगी!!!!आप सब पत्थर के बने, न,न पत्थर भी न, क्योंकि उसको गढ़ खूबसूरत मूर्ति बनाई जा सकती है!!पर आपको न क्योंकि कुछेक लोना लगे पत्थर (मानसिक रोगी) है, जिन्हें तराशा नहीं जा सकता !!मेहरबानी करके बबूल कांटा न बनिए| नाम कमाने का अच्छा प्लेटफार्म मिला हैं सभी को उसका सदुपयोग कीजिए | दुरूपयोग कर अपना नाम,संस्कार और संस्कृति मिट्टी में न मिलाइए |
माना तस्वीर शेयर कर आपने ऐसा कुछ न कहाँ कि हमारा खून उबले पर फिर भी आप बिना तस्वीर मेसेज में या वाल शेयर कर भी बात कह सकते थें !!!!!ख्याल रहें इज्जत देंगे तो ही पायेंगे!!! ...........सविता 'एक दुखित आत्मा'