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जुलाई 20, 2016

जाने दे-

रुक थोड़ा सा मुझको संभल जाने दे
मुझमें भी जरा सी तो समझ आने दे
मैं भी कलम पकड़ कुछ लिख सकूँ
मुझे इतनी कलमकारी तो सीख जाने दे


हुनर सिखने में लगेगी तनिक देर अभी
गजल के 
भी कुछ नियम सीख जाने दे

प्रयास हैं बहुत पर थोड़ा वक्त है अभी
बुद्धि में हमारी भी  पैठ ise बनाने दे
कलम अपनी जब चल  पड़ी idhr को
तो उसे भी कुछ गजल कह 
ही जाने दे|...सविता.....

जुलाई 16, 2016

~बदलते संस्कार~

इस कविता के साथ हम उपस्थित थे हिंदी भवन में | १७/9/२०१६ को १०० कदम के साँझा संग्रह के विमोचन में ..:)


परदादा कहते थे कि
राह चलते व्यक्ति को
बुलाते थे घर अपने
भोजन कराते थे प्यार से
व्यक्ति थका-हारा होता था
दो-चार दिन ठहर कर
फिर जाता था,
जाते जाते ढेरों दुआएं दे जाता था |

फिर दादा कहते थे कि
राह चलता व्यक्ति थक कर
बैठ जाता था पगडंडी पर
हम उसे घर ले आते थे
प्यार से भोजन-पानी देते
एकाध दिन अपनी थकान
मिटाता था रुक कर
फिर दुआएं देकर
चला जाता था |

पापा कहते थे कि
राह चलते व्यक्ति मिलता था
थोड़ी पहचान होती थी और
घर में बुला कर बैठाते थे
प्यार से चाय-पानी कराते थे
दो-चार घंटे आराम कर
दुआ देकर हमको
चला जाता था अपने गंतव्य को |

अब हम कहतें हैं बच्चों से
राह चलता कोई मिले
बिना पहचान वाला हो तो
बात मत करना उससे
कुछ दे तो कभी मत लेना
और घर तो बिलकुल भी
मत बुलाना उसे
रास्ते में आते-जाते लोग
पता नहीं अच्छे है या बुरे
अतः बेटा घर का
रास्ता भी ना दिखाना
रात को आकर लूट लेगा
अतः दूरी बनाए रखना |

पहचान का हो तो भी
कोशिश करना
घर ना ले आना पड़े
यदि लाना पड़े तो फिर
प्यार से बैठाना
चाय-पानी कराना
और जल्दी से जल्दी
विदा कर देना उसे
दुआ तो दूर यदि
बद्दुआएं न दे तो शुक्र मनाना |

बेटा बड़ा हो गया है अब
वह राह चलते व्यक्ति से
नजरें भी नहीं मिलाता
अपने रिश्तेंदार भी मिलें तो
नजरें चुरा लेता है
देखा ही नहीं उसने ऐसा
आभास कराता है
घर आएं मेहमान को भी
चाय-नाश्ता तो दूर रहा
पानी भी नहीं पूछता है
कोशिश रहती है उसकी
बाहर से ही विदा हो जाये |

गलती शायद उसकी नहीं है
हमारी ही है
हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलते गयें
अपनी मानवता को ही
शनैः शनैः दफन करते गयें
भावनाएं अब मर गयी हैं
हम मशीन हो गयें हैं
दूसरों की परवाह नहीं
आगे बढ़ने की होड़ में
जानवर से भी गये-गुजरे हो गयें हैं
दुआएं लोगों की छोड़िए
बद्दुआएँ लेने लग गयें हैं | +सविता मिश्रा +


जुलाई 12, 2016

~प्रतिरोध की संस्कृति~

प्रतिरोध यानि विरोध की संस्कृति| जब से जीव-मात्र ने जीवन पाया है, यह प्रवृत्ति अपने आप ही जन्मानुगत ही उसमे पायी जाती है| इंसान क्या जानवर भी विरोध की संस्कृति से बखूबी परिचित है|
खैर हम तो इंसानों की बस बात करेंगे | प्रतिरोध करना इंसानो का मुलभूत स्वभाव है |
बच्चा जन्म लेते ही प्रतिरोध करना सीख जाता है| उसके मन मुताबिक चीज न हो तो वह रोकर अपना प्रतिरोध दर्ज कराता है | जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वह क्रोध कर ,रोकर ,चीख-चिल्लाकर प्रतिरोध करता है |
प्रतिरोध ऐसी ताकत है जिससे हम सामने वाले को उसकी गलती का अहसास दिला सकते है | पर इसका उग्र रूप बहुत ही घातक होता है | उग्रता में हम अपनी सीमा भूल जाते है | सीमा का उलंघन होते ही हमारा दिमाक भी प्रतिकार करता है, पर हम क्रोध में अंधे हो चुके होते है | भावहीन हो जातें हैं, जिससे दिमाक का वह प्रतिकार हम महसूस ही नहीं पाते|
शान्तिमय प्रतिरोध में बहुत ताकत है | पर यह एक होम्योपैथी इलाज की तरह है ,जो समय लेता है, सामने वाले को उसकी गलती का अहसास कराने के लिए | पर यह समय ही तो हैं जो हममें से किसी के पास होता कहाँ है | हमारी जल्दी सुनी जाये अतः हम आक्रामक प्रतिरोध की संस्कृति अपनाते है, जो एलोपैथी जैसा काम करती है| पर लोगों की नजर में हमें  उद्दण्ड भी बना देती है |
आजकल आदमी की सहनशक्ति ख़त्म सी हो रही है| अतः वह आक्रामक हो प्रतिकार करता है | हर गली -मोहल्ले में ,हर बात पर | उसका यह आक्रामक प्रतिकार, प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतिकूल हो जाता है |जिससे वह असर नहीं होता जो होना चाहिए |
सड़क पर प्रतिरोध करते लोग आम जन से भिड़ते ही रहते है यह आम बात है | सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा कर प्रतिरोध दर्ज करना, कौन सी बहादुरी का काम है | संसद घेरना ,चीखना -चिल्लाना ,आगजनी , मार-पीट करना ये सब तो स्वस्थ प्रतिरोध की संस्कृति नहीं है,फिर भी ज्यादातर लोग ऐसे ही कर रहें हैं |
'संयत रहिये तो ही स्वस्थ रहेंगे ' प्रतिरोध करने वालों को यह युक्ति अपनानी चाहिए |
पांच -छः साल से ये वेलेंटाइन डे क्यों इतना महत्व पा रहा है, क्योंकि हम इसका जबरदस्त विरोध कर रहें है| हम इसे दबाने में प्रतिरोध कर रहें तो इसके समर्थक इसे उभारने में प्रतिकार | दोनों ही प्रतिकार अमर्यादित है, जिसके कारण फायदा के बजाय नुकसान हो रहा हैं | दोनों ही तरफ से प्रतिरोध की संस्कृति अपनाने के कारण आज सभी बच्चे -बूढ़े नर- नारी के जुबान पर यह डे हैं | वर्ना कौन जानता था कि ये किस चिड़िया का नाम है | अमर्यादित डे को हर युवा अपनाकर भारतीय संस्कृति को कुटिलता से कुचल रहा है| इसका प्रतिरोध करना हम भारतीयों की ही जिम्मेदारी है | पर सकारात्मक रूप से, वर्ना यह लाइलाज बीमारी की तरह फैलती जाएगी | फिर भविष्य को देने के लिय हमारे पास अपनी संस्कृति बचेगी ही नहीं |
प्रतिरोध की संस्कृति जो हमारी ताकत है ,उसे हमारी कमजोरी बनाकर फ़िल्मवाले भी इस्तेमाल कर रहे है, और हम अन्जान होने के कारण इस्तेमाल हो रहें है | कोई न कोई विवादित क्षण मूवी में डालो, जनता प्रतिकार कर अपने आप प्रचार कर देंगी| उनकी इस सोच पर हमें सोचना होगा कहीं हम महज कठपुतली तो नहीं बन रहें |
भीड़ में प्रतिरोध करते किसी भी व्यक्ति से यदि सवाल किया जायें कि आप प्रतिरोध किस चीज का कर रहें है? तो शायद ही २० में से आठ ही यह बता पाएँ कि मूल कारण क्या है, जिसका हम प्रतिरोध कर रहें हैं| बस देखा-देखी पाप ,देखा-देखी पुण्य की राह पर चल पड़ते है अंधे -बहरे-गूंगे बनकर | जो अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिरोध की संस्कृति को क्षति पहुंचाता है |
अब इसका मतलब यह तो कदापि नहीं कि आपके घर के सामने कोई लाकर ठीक दरवाज़े पर गाड़ी खड़ी कर दें, पर आप दबते-दबाते किसी तरह निकल जाये प्रतिकार करें ही न | या आपके दरवाजे पर कोई पान थूंक जाये, पर आप मूक दर्शक बने रहें | प्रतिकार करना हमेशा मुलभूत अधिकार है | बस उसका दायरा कहाँ, कब शुरू होता है और कहाँ, कैसे ख़त्म यह समझने की बात है |
आज की युवा पीढ़ी ना जाने किस ओर भाग रहीं है | रोकने-टोंकने पर इसी ' प्रतिरोध ' को हथियार बना लेती है | न जाने कैसी आजादी चाहिए ? कोई उनसे कहें तो कि बेटा आजाद तो तुम जन्म से पहले भी न थे, जन्म के बाद भी नहीं हो | कोख में माँ ने तुम्हारी एक सीमा तय कर रखी थी और शैशवावस्था में भी | हाँ प्रतिकार होता था पर वो प्रतिकार सही दिशा में है या नहीं यह निश्चित माँ-बाप ही करते थे |
आज वैश्विक व्यवसायिक हवा में झूलते जिस झूले में बैठ लोग, आसमान का सफ़र करना अपना अधिकार बता रहें है| वह झूला दरअसल एक कमजोर डोरी से बना है, जो उनके थोड़ा सा ऊपर जाते ही टूट जाता है |और वो फिर इसी धरातल पर आ गिरते है, जो उनकी अपनी भारतीय संस्कृति है | आज जो भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देख प्रतिरोध कर रहे है , कल इसी की गोद में आराम करना पसंद करेंगे| जैसे बच्चा कितना भी उछल-कूद, शरारत कर ले पर अंततः माँ की गोद में सर रखकर ही सुकून पाता है | क्लब में थिरकना ,शराब -अफ़ीम-गांजा का सेवन करना, बेहूदे कपड़े पहनना ये सब अपनाने के लिए सभी छटपटाते है| हर चमकती हुई चीज को सोना समझ युवा द्रिगभ्रमित हो अपना लेता है, पर कुछ समय पश्चात् मोह भंग होतें ही  इनसे बाहर आना चाहतें है| अँधेरी गुफा में जाने का रास्ता तो बहुत सरल हैं परन्तु निकलने का उतना ही कठिन|
हरें -भरें फल -फूल से लदें राजनीतिक वृक्ष पर भी लोग प्रतिरोध कर- कर के चढ़े जा रहे है |  चढ़ते ही संयमित प्रतिरोध किस चिड़िया का नाम है भूल,असंयमित हो मशगूल हो जातें  हैं, खूबसूरत फल-फूल अपनी झोली में डालने में |
गलती उनकी कहाँ ,गलती तो हमारी है| जो हर उल्टा-सीधा ढंग से प्रतिरोध करने वाले को हम युग पुरुष समझते है| क्योकि हमारे अंतस के कोने में बैठे प्रतिरोध के राक्षस को वह आवाज दे रहा है | विरोध का राक्षस तो अपने भी अंतस में तांडव कर रहा है, पर हमें  अपनी सीमा पता है उस सीमा से बाहर निकल उदण्ड रूप से प्रतिरोध करना हमारी मर्यादा के खिलाफ है |

अब तो प्रतिरोध भी शायद प्रतिकार करने लागा है कि..
मुझे वीभत्स मत बनाओं
संयत रूप में ढ़ल जाओं
बदल डरावना रूप अपना
भारतीयता को तुम अपनावों|
एक गीला कपड़ा आग के पास भी लाओं, तो वो तब तक नहीं जलता जब तक गीला रहता है | ज्यादा समय सानिध्य में रखने पर सूखते ही झट आग पकड़ लेता है | उस समय पानी डालकर बुझाना हमारी जिम्मेदारी हैं | आज यदि हम इस ज़िम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से नहीं निभाते तो कल सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाएगा | फिर तो आग के ढेर पर बैठकर रोने के सिवा कुछ नहीं मिलेगा |
प्रतिरोध की संस्कृति के जरिये हमें भारतीय संस्कृति को बचाने का प्रयास करना चाहिये | हाँ एक दायरे में हो यह नहीं की एक मर्यादा बनाये रखने के लिए, दूसरी मर्यादा तोड़ी जायें |
' प्रतिरोध की संस्कृति ' को संस्कृति के ही रूप में अपनायें , तो वह दिन दूर नहीं जब सभी इस संस्कृति के पक्षधर होंगे | आखिर मर्यादित रहना हमारी संस्कृति है और मर्यादा में रहकर विरोध करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार |
चीख-चीख कर, कर रहा जो तू प्रतिकार
उदण्ड मवाली कह, आवाज़ दबा देंगी सरकार
अत्याचार एवं वैश्विकता का, मर्यादा में रह कर विरोध
कन्धें से कन्धा मिला तब, चलने वालों की होगीं भरमार | सविता मिश्रा

जुलाई 08, 2016

!!!बबूल का कांटा!!!

समझे तो सही! नहीं समझेंगे तो सुनेंगे!
बस एक सलाह - माने तो 
ठीक न माने तो भी खास फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन बस आप फ्रेंड लिस्ट से विदा हो जाएंगे। हमारी ही नहीं किसी भी स्त्री की फ्रेंड लिस्ट से। बबूल का कांटा किसे सुहायेगा भला, वैसे भी हम स्त्रियां कोमल स्वभाव की स्वामिनी तो हम सबको तो नहीं ही सुहायेगा। अतः बबूल का कांटा न बनिए!

हे फेशबुक वासियों! आप लोग जैसे दूसरे की फोटो कॉपी करके, मैंसेज में भेजते हैं या उसका दुरूपयोग करते हैैं, वैसे ही आपके माँ -बहन क़ी फोटो कोई  और ऐरा-गैरा कॉपी करके आपको या किसी और के मैसेज बॉक्स में या 
किसी की वाल पर या अपनी ही वाल पर चिपकाए तो कैसा लगेगा! और कुछ उटपटांग से लिख भी दे, तो फिर..! कैसा लगेंगा? शीशे के घरों में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते भई!
मेहरबानी करके दूसरे की माँ-बहन की भी इज्जत करियें ! यदि अपनों की चाह रहे हैं तो। आप दूसरे के लिए यदि कुँआ खोद रहे हैं तो खाई आपके लिए भी कहीं न कहीं खुद ही रही होगी!!
ये भी तो एक प्रकार का क्राइम है...।..वकील बहुत हैं यहाँ फेसबुक पे..पर धारा कौन सी लागू होगी, शायद न बताएँ।   😊 क्योंकि पढ़ेंगे आकर या नहीं, कोई गारण्टी नहीं|अब  सब पोस्ट सबको दिखे ही, जरूरी तो नहीं।      😊😊
हम सब महिलाएँ तो आप कितने भी स्मार्ट हों, अच्छे से ड्रेसअप हों, या फिर और कोई और कारण हो! आपकी कोई भी तस्वीर शेयर नहीं करते हैं...। न ही मैंसेज बॉक्स में जाकर आपकी ही तस्वीर आपको भेजते हैं...!! आपकी तस्वीर पर ही कमेंट करके आते हैं। पर आपको शायद शर्म आती है महिलाओं की फोटो पर बोलने में। फोटो तो फोटो, पोस्ट पर भी बोलने में कातरते हैं, है न ?? पोस्ट को देखकर भी अनदेखा करना और मैसेज में जाकर बोलना 'बहुत अच्छा लिखती हैं आप....' क्या मतलब है इसका?हमें नहीं पता क्या! हम कितनी स्याही खराब करते हैं और कितने पेपर! हो सकें तो पोस्ट पर बोलें , राय दें, तो समझ आये! 
दौड़कर गुपचुप बॉक्स में मत पहुँचिए। औरतों की पोस्ट पर दो शब्द बोलने से आपकी इज्ज़त नहीं कम हो जाएगी!

मायावी फेेेसबुुुक की भूल-भुल्लया में
बड़ी मुश्किल से भरोसा करके आप सब को जोड़ने की हिम्मत जुटाते हैं हम, कृपया उस भरोसे को कायम रखिए। वैसे जब हम जैसे सामान्य लोगों के मैसेज में आप एक्का दुक्की ऐसे सिरफिरे टपक पड़ते हो, तो वे लोग कितना परेशान होते होंगे जो व्यूटी क्वीन हैं!! उन्हें तो आप सब जीने ही 
नहीं देंते होंगे!
जियो और जीनो दो भई! हम सब भी हाड़- मांस के पुतले हैैं आप सबकी ही तरह। आपके अहम् को ठेस पहुँचती है तो क्या अपना आत्मसम्मान नहीं है क्या कोई!
तस्वीर हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं । इस पहचान को कायम रखने के लिए तस्वीर लगाते हैं। आप सब से तारीफ पाने के लिए नहीं...। और यदि तारीफ पाना भी चाहेें तो इसमें बुरा भी क्या है! हम तस्वीर बदलें तो बुरा हुआ। आप बदलो तो भला! ये कैसा दोगलापन! जैसे कलम हमारे स्वभाव और लिखने की क्षमता की परिचायक ! उसी तरह तस्वीर  हमारे व्यक्तित्व की पहचान है। इसके जरिये हम अपनी पहचान कायम रखना चाहते हैं ! कोई लिखने वाला कहीं मिले तो पहचान सकें। हम भी कई को तस्वीर से ही पहचानते हैं, नाम तो एक से हो सकते न, पर तस्वीरें तो एक सी नहीं हो सकती।
तस्वीर पर यदि आप सब खूबसूरत कहते हैंं भी तो यक़ीन मानिये बहुत आड फील होता है! समय के साथ अब आदत पड़ गयी है। उ क्या है न कि हम स्त्रियाँ तारीफ अवश्य सुनना चाहती हैं पर अपने परिवार वालों से दूसरों  से सुनने में बड़ा अटपटा सा लगता है। यहाँ भले सुन ले रहे हैं ! क्योोंकि किकिकिकिकि धन्यवाद भी ज्ञापित कर रहें ! पर सामने कोई बोले तो बोलती बंद रहती !!!
वैसे भी आप सबने ध्यान दिया हो तो, हमारी तस्वीर पर सामान्य कमेंट के अलावा महत्वपूर्ण रूप से आशीष ही होता हैं बड़ो का!!! प्लीज मेहरबानी होगी आप सभी क़ी कि ऐसी हरकत न करें जिससे हम स्त्रियोँ को परेशानी हो!!!ये मत समझिये कि आप में कई हमारे लिए बबूल का कांटा बनते रहेंगे और हम स्त्रियाँ उस कांटे का दंश झेलते रहेंगी | बदले में हम भी काँटा बन सकतें, पर हम नीचे गिर कर, नीचे गिरें हुए को ऊपर उठाने में कोई रूचि न रखते |
Fb पर लेखन उद्देश्य से जुड़े है हम वहीं  करने दीजिए शांति से!!!!!खुद सभ्यता से जीये और हमें भी चैन से जीने दें!!!हम्बल रिकवेस्ट है आप सब ऐसों -वैसों से !!!!
कई कहते औरतों  को तस्वीर ही नहीं डालनी चाहिए!!!क्यों भई गलत करो आप और भुगते हम!!!आप में तो यह भी सोचतें  कि औरतों को घर से बाहर ही न निकलना चाहिए....नियत हो आपकी खोटी और औरतें  रहें कैद में ये कैसा न्याय!!!!न्याय पर पट्टी अवश्य बन्धी , जानता समझता वह भी है!!!!

सुबह-सुबह मेसेज में फिर एक बार अपनी तस्वीर देख सनक गया दिमाग.....|देखिए आप में कुछ के कारण कितना समय बर्बाद हुआ हमारा खामख़ाह!!!!क्योंकि मालूम है आप सब के सर पर जूं भी न रेंगेगी!!!!आप सब पत्थर के बने, न,न पत्थर भी न, क्योंकि उसको गढ़ खूबसूरत मूर्ति बनाई जा सकती है!!पर आपको न क्योंकि कुछेक लोना लगे पत्थर (मानसिक रोगी) है, जिन्हें तराशा नहीं जा सकता !!मेहरबानी करके बबूल कांटा न बनिए| नाम कमाने का अच्छा प्लेटफार्म मिला हैं सभी को उसका सदुपयोग कीजिए | दुरूपयोग कर अपना नाम,संस्कार और संस्कृति मिट्टी में न मिलाइए |
माना तस्वीर शेयर कर आपने ऐसा कुछ न कहाँ कि हमारा खून उबले पर फिर भी आप बिना तस्वीर मेसेज में या वाल शेयर कर भी बात कह सकते थें !!!!!ख्याल रहें इज्जत देंगे तो ही पायेंगे!!! ...........सविता 'एक दुखित आत्मा'