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जुलाई 16, 2016

~बदलते संस्कार~

इस कविता के साथ हम उपस्थित थे हिंदी भवन में | १७/9/२०१६ को १०० कदम के साँझा संग्रह के विमोचन में ..:)


परदादा कहते थे कि
राह चलते व्यक्ति को
बुलाते थे घर अपने
भोजन कराते थे प्यार से
व्यक्ति थका-हारा होता था
दो-चार दिन ठहर कर
फिर जाता था,
जाते जाते ढेरों दुआएं दे जाता था |

फिर दादा कहते थे कि
राह चलता व्यक्ति थक कर
बैठ जाता था पगडंडी पर
हम उसे घर ले आते थे
प्यार से भोजन-पानी देते
एकाध दिन अपनी थकान
मिटाता था रुक कर
फिर दुआएं देकर
चला जाता था |

पापा कहते थे कि
राह चलते व्यक्ति मिलता था
थोड़ी पहचान होती थी और
घर में बुला कर बैठाते थे
प्यार से चाय-पानी कराते थे
दो-चार घंटे आराम कर
दुआ देकर हमको
चला जाता था अपने गंतव्य को |

अब हम कहतें हैं बच्चों से
राह चलता कोई मिले
बिना पहचान वाला हो तो
बात मत करना उससे
कुछ दे तो कभी मत लेना
और घर तो बिलकुल भी
मत बुलाना उसे
रास्ते में आते-जाते लोग
पता नहीं अच्छे है या बुरे
अतः बेटा घर का
रास्ता भी ना दिखाना
रात को आकर लूट लेगा
अतः दूरी बनाए रखना |

पहचान का हो तो भी
कोशिश करना
घर ना ले आना पड़े
यदि लाना पड़े तो फिर
प्यार से बैठाना
चाय-पानी कराना
और जल्दी से जल्दी
विदा कर देना उसे
दुआ तो दूर यदि
बद्दुआएं न दे तो शुक्र मनाना |

बेटा बड़ा हो गया है अब
वह राह चलते व्यक्ति से
नजरें भी नहीं मिलाता
अपने रिश्तेंदार भी मिलें तो
नजरें चुरा लेता है
देखा ही नहीं उसने ऐसा
आभास कराता है
घर आएं मेहमान को भी
चाय-नाश्ता तो दूर रहा
पानी भी नहीं पूछता है
कोशिश रहती है उसकी
बाहर से ही विदा हो जाये |

गलती शायद उसकी नहीं है
हमारी ही है
हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलते गयें
अपनी मानवता को ही
शनैः शनैः दफन करते गयें
भावनाएं अब मर गयी हैं
हम मशीन हो गयें हैं
दूसरों की परवाह नहीं
आगे बढ़ने की होड़ में
जानवर से भी गये-गुजरे हो गयें हैं
दुआएं लोगों की छोड़िए
बद्दुआएँ लेने लग गयें हैं | +सविता मिश्रा +


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