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सितंबर 09, 2016

~आत्मा जाग रही बस इंसानियत सो रही ~ (कुछ मन की)


फेसबुक पर घूमते-घूमते खूब हो हल्ला सुने तस्वीरें भी देखी दाना मांझी की | पर न जाने क्यों अपनी सम्वेदना न जगी| शायद हम संवेदनहीन हो गए है, या लोगों की सम्वेदनशीलता पर सवाल खड़ा करना चाहते है | दैनिक जागरण में एक लेख भी पढ़े | परन्तु सोयी रही अपनी सम्वेदनशीलता कहीं कोने में| क्या करें! हर रोज कुछ न कुछ ऐसा देखने की आदत पड़ गयी है |

आज न जाने कैसे किसकी वाल पर एक वीडियो भी दिखी दाना मांझी की | वीडियो देख कई सवाल उठे मन में| सब प्रायोजित सा लगा| आप भी ध्यान से वीडियो देखेंगे तो पाएंगे कि जैसे कहा गया हो, 'हाँ ओके टेक टू वीडियो!' वो जैसे फिल्म बनाने वाले करते हैं | और मांझी ने उठा ली हो फिर से अपनी बीबी की लाश अपने कन्धो पे | क्या fb पर लाइक कमेन्ट के हम इतने ज्यादा भूखे हो गए कि हमें इंसानियत की रत्ती भर भी भूख न रहीं |

मिडिया जैसे किसी घटना को सिर्फ टीआरपी के चक्कर में बढ़ा चढ़ा दिखाता है? वैसे ही हम भी लाइक के चक्कर में घिर गए है ? क्या मार्क जुकरबर्ग ने हमारी सम्वेदनशीलता को छीन लिया है ? या यहाँ भी हम एक दूजे से ज्यादा सम्वेदनशील होने के चक्कर में माझी के चित्र को लेने वाले को मशहुर कर दिए है ? क्या ऐसे माझियों की कमी है अपने देश में ? इस खबर के दुसरे-तीसरे दिन ही क्या एक और दर्दनाक चीख न सुनी किसी ने ? एक लाश की खबर, जिसके कमर से शरीर के दो टुकड़े कर दिए गए ! सवाल कई उठते हैं ! कई चीजों को देखकर पर जबाब में शून्य ही हाथ लगता अपने |

गिद्ध को बालक पर झपटते हुए जिसने तस्वीरें ली थी उनकी आत्मा ने तो उन्हें धित्कार दिया था | उन्होंने आत्महत्या कर ली थी | हम यह बिलकुल नहीं कह रहे कि यह चित्र और वीडियो लेने वाले केविन कार्टर बने | लेकिन इतनी गुजारिज जरुर है कि कैमरे का दुरूपयोग यदि करें भी तो इंसानियत का भी ख्याल रखे | हो सकता है उन्होंने यह वीडियो बनाने के बाद इंसानियत दिखाई भी हो! पर समाचारों से तो ऐसा प्रतीत होता हुआ न दिखा | क्योकि समाचार तो यही कहता कि माझी किसी प्राइवेट गाड़ी से अपने गाँव नहीं गए | बल्कि सरकारी एम्बुलेंस 10 किलोमीटर बाद मुहैया कराई गयी | काश यह पहले ही कर देते तो इतनी छीछालेदर न होती | लेकिन इसकी भी एक सच्चाई है , शायद वह किसी को न दिखी! कभी भी सरकारी एम्बुलेंस लाश ढ़ोने के लिए प्रयोग नहीं की जाती| उसके लिए एक अलग गाड़ी होती है जिसे शववाहन कहते|

फेसबुक पर भी कईयों की सम्वेदनाएँ उफ़ान मार रहीं है | क्या हम जिन्दा लाशों को जब सड़क पर घिसटता देखते है तो हमारी सम्वेदना जागती है | नहीं न ! हम नाक बंद कर आगे बढ़ जाते हैं| पुलिस को फोन घुमाने की भी जहमत न उठाते | न ही और कोई ऐसी व्योस्था करते जिससे उस लाश को हटाया जा सकें |

अभी कुछ दिन पहले रविवार को हम आगरा-दिल्ली एक्सप्रेस-वे से गुजर रहें थे; सड़क पर किसी कुत्ते के बच्चे की लाश सी दिखी | स्पीड में होने के वजह से साफ़ साफ़ न देख पाए | बेटे से कहें कि "क्या सफाई नहीं की जाती सड़को की|
क्यों क्या हुआ उसने कहा तो बोले देखो सड़क पर लाश पड़ी किसी जानवर की , अब रात होते ही न जाने कितनी गाड़ियाँ इस पर से गुजर जाएँगी | टोल पर पहुँचने पर लगा बहुत भीड़ चल रही सड़क पर | शायद रविवार का दिन होने से सब मथुरा की सैर करने निकले होंगे | भगवान के घर जा रहें उनके प्रति अपनी सम्वेदना जगाने या फिर अपने प्रति | पर एक जीव जो निर्जीव सा हो गया है उसके प्रति हमारी सम्वेदना सोयी पड़ी है|

बेटे ने कहा नम्बर होता है कम्प्लेन करने का , हमने कहा मिलाओ नम्बर कम्प्लेन कर दो | झट वह बोला नम्बर न पता | क्या नेताओ की प्रचार होर्डिंग के बजाय ऐसे सहायता या कम्प्लेन करने के लिए जगह जगह बड़े बड़े होर्डिंग लगा उन सबके मोबाईल नम्बर न देने चाहिए? जिससे यदि किसी को ऐसी अव्योस्था दिखाई पड़े या समस्या हो तो फोन कर सूचित तो कर सकें | प्रचार के तो होर्डिंग थे लगे | सवाल कई उठते कई चीजों को देखकर पर जबाब में शून्य ही हाथ लगता |

खैर कहाँ भटक गए हम | यह मन भी न जाने कितने सवालों से भरा है एक टॉपिक पर टिकता ही न !
घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही रस्ते में न जाने कितने सम्वेदना को जगाते दृश्य मिल जाते है| पर हमें अपनी मंजिल की ओर दौड़ लगानी होती अतः हम उस सम्वेदना को थपकी देकर सुला देते है | शायद मन कहता सो जा बेटा वरना खामाखां परेशानियों में उलझ जायेगा | और अपनी मंजिल पर लेट जाएगा तो वह तुझसे छुट जाएगी | आत्मा सोयी पड़ी है अतः हमें कचोटती नहीं है वह भी | क्यों ऐसा ही होता न !

यदि सही मायने में सम्वेदना जागी है किसी के मन में तो, घर में, घर से बाहर देखिए कई ऐसे अवसर है जो इंसानियत को ललकारते मिलेंगे | इंसानियत को जगा इन्सान की मदद कीजिए {मतलब प्राणीमात्र से}| वैसे कहना आसान है करना मुश्किल क्योकि इस राह में बड़े खतरे भी है और अपनी विवशता भी | फिर भी जिन्दगी के मोड़ पर किसी एक भी मदद कर पाए तो बड़ी बात होगी मेरे लिए भी और आप सबसे भी यही कहना|
हमें तो अपने घर के सामने खड़ा कनेर का पौधा रोज हमारे सम्वेदनहीन होने का प्रमाण देता है| और हम मेयर को कोसते हुए रोज अपनी सम्वेदना प्रकट करती रहती| सविता मिश्रा

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